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सामान सौ बरस का, कल की खबर नहीं.
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परिजन, पति, पत्नी जो भी दिखाई देते हैं, उनमें से कोई भी स्थिर नहीं है अर्थात् स्थायी नहीं हैं । स्थिर केवल निरंजन राम एवं सत्य है ।
बंधुओ, यहाँ राम से आशय आत्मा है। क्योंकि आत्मा ही परमात्मा है, अगर इनके बीच रही हुई कर्मों की दीवार को गिरा दिया जाय । कहते भी हैं-'प्रत्येक के हृदय में परमात्मा का निवास है,' या 'घट-घट में राम' है।
तो प्रत्येक मुमुक्षु को संसार की वस्तुओं की एवं शरीर की अनित्यता की भावना सदा मन में रखनी चाहिए। अगर यह भावना प्रतिपल हृदय में रहेगी तो वह प्रथम तो शरीर का साधना में पूर्ण सहयोग ले सकेगा, दूसरे अन्तकाल के समीप आने पर भी भयभीत या खेदखिन्न नहीं होगा।
जीवनोन्नति के चार अमूल्य सूत्र ! कहा जाता है कि एक बार किसी राजा ने भगवान बुद्ध से कहा- "गुरुदेव ! मैं राज्य-कार्य में इतना व्यस्त रहता हूँ कि आपका उपदेश भी बराबर नहीं सुन पाता अतः कृपा करके मुझे संक्षेप में जीवन को सफल बनाने का उपदेश दे दीजिए।"
बुद्ध ने उत्तर दिया--"राजन् ! तुम्हारा कहना यथार्थ है कि तुम्हें बड़ी कार्य-व्यस्तता रहती है । अगर ऐसा ही है तो मैं तुम्हें चार बातें बताये देता हूँ। अगर उन चार संक्षिप्त बातों को सदा याद रखोगे तो तुम्हारा जीवन उन्नत और सफल बन जायेगा।"
अंधे को क्या चाहिए ? दो आँखें । राजा भी बुद्ध की बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उत्सुकतापूर्वक बोला
__ "भगवन् ! इससे बढ़कर और क्या हो सकता है ? चार बातें तो मैं बखूबी याद रख लूंगा, कभी भी उन्हें भूलूंगा नहीं । कृपया बताइये कि वे बातें कौनकौन सी हैं !"
बुद्ध ने कहा- "पहली बात तुम यह याद रखना कि 'मैं वियोगधर्मी हैं।' अर्थात्-इस संसार में चेतन और अचेतन जो भी तुम्हें मिले हैं, उन सबका एक दिन वियोग होना निश्चित है। अगर इस बात को याद रख लोगे तो जगत की किसी भी वस्तु पर और किसी भी सम्बन्धी पर तुम्हारी आसक्ति अथवा मोह नहीं रहेगा।
"दूसरी बात केवल यह याद रखने की है कि 'मैं रोगधर्मी हूँ। "तीसरी यह कि मैं 'जराधर्मी हूँ' । और"चौथी यह कि मैं 'मरणधर्मी हैं।
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