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________________ जाए सद्धाए निक्खन्ते १५६ पहनने की आश्यकता ही नहीं पड़ेगी। यानी मुझे फिर खाने-पीने और जन्म लेकर मरने की जरूरत नहीं होगी, मैं स्थायी सुख की प्राप्ति कर लूंगा।" बादशाह फकीर की यह बात सुनकर बहुत चकित हुआ, किन्तु उसकी समझ में आ गया कि फकीर ने मेरी नौकरी छोड़कर जो खुदा की बन्दगी स्वीकार की है, वह मेरी नौकरी की तुलना में अनेकानेक गुनी श्रेष्ठ है । श्री भर्त हरि ने भी कहा है : नायं ते समयो रहस्यमधुना निद्राति नाथो यदिस्थित्वा द्रक्ष्यति कुप्यति प्रभुरिति द्वारेषु येषां वचः। चेतस्तानपहाय याहि भवनं देवस्य विश्वेशितु निदौवारिकनिर्दयोक्त्यपरुषं निःसीमशर्मप्रदम् ॥ श्लोक में मन को संबोधित करके कहा गया है- "रे मन ! जिनके द्वार पर यह सुनने को मिलता है कि 'मालिक से मिलने का यह समय नहीं है, वे इस समय एकान्त चाहते हैं, इस समय सो रहे हैं, अगर तुम्हें खड़ा देखेंगे तो कुपित होंगे, तो ऐसे मालिक का त्याग कर तू उन विश्वेश की शरण में चल, जिनके द्वार पर रोकने वाला कोई दरबान नहीं है जहाँ निर्दय एवं कठोर वचन कभी सुनने नहीं पड़ते । उलटे वे ईश्वर अनन्त एवं शाश्वत सुख प्रदान करते हैं।" वस्तुतः सच्ची साधना एवं निस्वार्थ तपस्या में ऐसी ही अदभुत शक्ति होती है, पर आवश्यकता है उसके साथ सम्यक् श्रद्धा की। अगर व्यक्ति तप एवं साधना करता भी चले, किन्तु उसके मन में अपनी तपस्या के फल की सतत कामना बनी रहे और फल-प्राप्ति न होने पर सन्देह एवं शंकाओं के भूत मन में तांडव करते रहें तो साधना एवं तप में शक्ति कहाँ रहेगी और कैसे इस लोक में या परलोक में उनका उत्तम फल प्राप्त होगा ? दिखावे से लक्ष्य सिद्धि नहीं होगी ! आप जानते ही हैं कि दिखावे के कार्यों से उनका लाभ नहीं उठाया जा सकता। भले ही लोग इस लोक में यश-प्राप्ति की कामना से पूजा-पाठ, जप-तप या भक्ति करलें, तथा मनुष्यों की आँखों में धूल झोंककर महात्मा कहलाने लग जायँ, किन्तु कर्मों की आँखों में धूल झोंककर परलोक में सुख प्राप्त नहीं किया जा सकेगा। वहाँ तो वही फल मिलेगा जैसी यहाँ भावना रहेगी। कार्यों के अनुसार ही अगर भावना शुद्ध रहेगी तो परलोक में उत्तम फल मिलेगा और उसे कोई भी रोकने में समर्थ नहीं होगा। कहा भी है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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