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________________ १५८ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग "मुझे समय नहीं है और न ही मैं बादशाह का नौकर हूँ।" फकीर ने बेफिक्री से उत्तर दे दिया। कर्मचारी ने यही बात बादशाह के समक्ष आकर दोहरा दी। ___ यह सुनकर प्रथम तो बादशाह आग-बबूला हुआ पर फिर सोचने लगा"मेरे एक साधारण से नौकर में मेरी ही अवज्ञा करने की हिम्मत कैसे आ गई ?" वह कुछ समझदार था अतः सोचा-"चलकर उसी से पूछे कि जब मेरे पास रहते थे, तब तो तुम भीगी बिल्ली के समान घंटों मेरे भवन के द्वार पर मेरी आज्ञा या मेरे संकेत के लिए खड़े रहते थे, पर आज मेरे बुलाने पर भी तुमने आने से इन्कार किस बूते पर किया ?" राजा या बादशाह उतावले तो होते ही हैं ! उसी वक्त घोड़े पर चढ़कर फकीर के पास जा पहुंचे । देखा कि फकीर बड़े आनन्द, संतोष एवं निराकुल भाव से अपनी प्रार्थना में लगा हुआ है । उसके चेहरे पर अखंड शांति तथा आत्म-तेज विद्यमान है, जिससे चेहरे की कांति फूटी पड़ रही है। यह देखकर बादशाह का रहा-सहा क्रोध भी समाप्त हो गया और वह पूछ बैठा-"क्योंजी ! क्या सोचकर तुमने यह फकीरी धारण की है ? आखिर मेरे यहाँ काम करते थे तो वेतन और उसके अलावा कभी-कभी इनाम भी पाते थे जिससे अच्छा पहनने और अच्छा खाने को मिलता था । पर वह सब छोड़कर ये न कुछ से वस्त्र पहनकर और कंद-मूल या रूखा-सूखा खाकर रहने से तुम्हें कौन-सा अनोखा लाभ हो रहा है ?" ___ फकीर ने आँखें खोलकर मुस्कराते हुए उत्तर दिया "बादशाह ! खुदा की शरण में आने से सबसे पहला लाभ तो यही हुआ है कि जहाँ मैं घंटों आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा में आपके द्वार पर खड़ा रहता था और आप परवाह ही नहीं करते थे, वहाँ आज आप स्वयं चलकर मेरी कुटिया के दरवाजे पर मुझसे मिलने आये हैं। दूसरे, उस समय मुझे हर समय यह चिन्ता रहती थी कि मेरे किसी कार्य से आप नाराज न हो जायँ और मुझे दंड न भुगतना पड़े, उसके बजाय अब मैं पूर्ण निराकुलता और निश्चिन्ततापूर्वक रहता हूँ । जब इच्छा होती है सोता हूँ, जब इच्छा होती है उठता हूँ और अल्लाह की इबादत में लग जाता हूँ।" ___"यह तो अल्पकाल में ही प्राप्त होने वाला प्रत्यक्ष लाभ है और अब, जबकि मैं एक मनुष्य की गुलामी करके खाने-पहनने को पाता था तो संसार के मालिक की गुलामी करके परलोक में निश्चय ही कुछ ऐसा प्राप्त करूंगा जिसके सामने खाना-पहनना तुच्छ बात है अपितु वह ऐसा होगा जिसके सामने खाने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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