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जाए सद्धाए निक्खन्ते
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में भी इनके कारण कष्ट तो निश्चय ही नहीं मिलेगा, मिलेगा तो कुछ न कुछ अच्छा फल ही। एक छोटा-सा उदाहरण है
उलटी गंगा बह गई किसी बादशाह के यहाँ एक व्यक्ति नौकरी करता था । यद्यपि उसे कार्यानुसार वेतन मिलता था, पर तनिक भी असावधानी होने पर या गलती हो जाने पर कभी-कभी उच्च-पदस्थ व्यक्तियों की और कभी-कभी स्वयं बादशाह की डाँट-फटकार खानी पड़ती थी।
इस कारण धीरे-धीरे उसका मन सांसारिक पचड़ों से विरक्त हो गया और वह बादशाह की नौकरी छोड़कर फकीर बन गया । फकीर बन जाने पर उसे बड़ा संतोष और आत्मिक शांति प्राप्त हुई । उसे लगा कि थोड़ी जमीन और छोटे से राज्य के मालिक की नौकरी करने से सृष्टि के मालिक की भक्ति करना सर्वोत्तम है।
अब वह फकीर दिन-रात खुदा की इबादत करता और जब कभी मन आता तब जो कुछ मिलता उसे खाकर पुनः अपनी साधना-तपस्या में लग जाता । इस जीवन में न कोई उसकी भर्त्सना करने वाला था, न डाँटने-फटकारने वाला और न ही किसी कार्य में भूल हो जाने पर सजा देने वाला। अतः निश्चिन्त होकर वह अपने अल्लाह की प्रार्थना करता तथा अपनी मौज के अनुसार बैठता उठता, खाता या इबादत करता । फकीरावस्था में न वह किसी का गुलाम था और न घन्टों किसी के द्वार पर खड़े रहकर मालिक के दर्शन करने और उनसे किसी कार्य की आज्ञा लेने की आवश्यकता थी। अपना मालिक वह स्वयं था और परम सुखी था।
धीरे-धीरे उसके फकीर बन जाने की बात शहर में फैल गई और बादशाह के कानों तक भी जा पहुँची। किसी ने उनसे कहा--"आपके यहाँ का ही अमुक नौकर बड़ा भारी फकीर बन गया है और अब वह किसी की परवाह नहीं करता। मन होता है तो किसी से बात करता है और नहीं तो मिलता भी नहीं ।”
बादशाह को यह सुनकर बड़ा गुस्सा आया कि मेरा ही नौकर मेरे राज्य में नबाब बना बैठा है और अपनी इच्छा के अनुसार चलता है । उन्होंने अपने एक कर्मचारी से कहा
"जाओ, उस फकीर को बुला लाओ ! कहना बादशाह बुला रहे हैं।"
कर्मचारी राजाज्ञा होने के कारण तुरंत फकीर के पास पहुंचा, और विनय पूर्वक बोला- "आपको बादशाह बुला रहे हैं।"
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