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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
को न तो किसी के अवगुणों पर दृष्टिपात करना चाहिए और न ही उसके बहकावे में आकर आत्म-धन रूपी अपनी सद्गुणों को खोना चाहिए। ___शास्त्रों के अनुसार अभी बताये गये क्रोध, ईर्ष्या, मान आदि सभी दुर्गुण कषाय में आते हैं और कषाय पापों को जन्म देती हैं। जो व्यक्ति इनके वशीभूत हो जाते हैं वे पशुओं से भी गये-बीते होते हैं । ___ कहा जाता है कि एक बार भगवान के परम भक्त हुसेन से समीप बैठे हुए किसी दुष्ट व्यक्ति ने कुत्ते की ओर इशारा करते हुए पूछा- “हुसेन साहब ! आप में और उस कुत्ते में क्या अन्तर है ?"
हुसेन ने सहज भाव से अविलम्ब उत्तर दे दिया--
"भाई ! जब मैं भगवान की भक्ति और धर्म-साधना में लगा रहता हूँ तो मैं कुत्ते से श्रेष्ठ साबित होता हूँ तथा जब पापाचरण करता हूँ तो कुत्ता मुझ से श्रेष्ठ होता है।"
वस्तुतः जब मानव अमानवता को अपना लेता है तथा अपने आत्म-गुणों को भूलकर पाप-कार्यों में संलग्न हो जाता है तब वह पशु से भी निम्न स्तर पर पहुँच जाता है । पशु तो पाप-कार्य करने पर भी क्षम्य हो सकता है क्योंकि उसमें बौद्धिक बल नहीं होता, किन्तु मनुष्य जिसे ईश्वर ने इतनी बुद्धि दी है कि वह चाहे तो सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करले, फिर भी अगर वह अपनी बुद्धि का सदुपयोग न करके पाप-कार्यों में दुरुपयोग करता है तो वह कदापि क्षम्य नहीं है और इसीलिए पशु से भी गया-बीता माना जाता है।
इसलिए वीतराग के वचनों पर विश्वास एवं अटल श्रद्धा रखते हुए प्रत्येक मुमुक्षु को शुभ-कर्मों में तथा तप एवं साधना में यथाशक्य संलग्न रहना चाहिए। उसे कभी यह विचार नहीं करना चाहिए कि-"इतने काल तक मैंने व्यर्थ ही साधना की या तप किया। इनके फलस्वरूप मुझे ऋद्धि-सिद्धि तो प्राप्त हुई ही नहीं, अतः निश्चय ही इनका अस्तित्व न कभी रहा है और न ही भविष्य में होगा।"
शास्त्रों में कभी मिथ्या बातें नहीं होतीं। हमारे यहाँ अट्ठाईस प्रकार की लब्धियाँ होती हैं, ऐसा वे बताते हैं। पर हमें वे हासिल नहीं होती तो इसका एकमात्र यही कारण है कि हम उत्तम साधना नहीं कर पाते और उत्कृष्ट तप भी हमसे नहीं हो पाता । पर इसके लिए दुःख, खेद या मन में अश्रद्धा क्यों लाना चाहिए ? क्या हम इतने से संतुष्ट नहीं रह सकते कि शुभ कार्य करने पर या यथाशक्य तप-साधना करने पर जबकि इस लोक में लोग हमें बुरा नहीं कहते और स्वयं हमारा मन भी संतुष्टि एवं प्रसन्नता से परिपूर्ण रहता है तो परलोक
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