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________________ १६० आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग म चित्तं समादाय, भुज्जो लोयंसि जायइ । —दशाश्रुतस्कन्ध ५|२ अर्थात् - निर्मल चित्त वाला साधक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता । ध्यान में रखने की बात है कि गाथा में साधक के लिए निर्मल चित्त वाला होना आवश्यक बताया गया है । चित्त की निर्मलता को ही दूसरे शब्दों में भावना की विशुद्धता कहा जाता है । अतः जिस साधक की भावनाएँ निर्मल यानी शंका, मिथ्यात्व या नास्तिकता के मल से रहित होंगी वही अपनी साधना एवं तपस्या का सही फल भी प्राप्त कर सकेगा । अब मैं 'दर्शन परिषह' के विषय में सामने रखता हूँ । वह इस प्रकार है— कही गई दूसरी गाथा को आपके अभू जिणा अत्थि जिणा, अदुवावि भविस्सई । मुसं ते एवमाहंसु, इइ भिक्खु न चिन्तए ॥ - उत्तराध्ययन सूत्र, अ. २, गाथा ४५ कभी यह न सोचे कि जो लोग कहते बोलते हैं । भगवान ने फरमाया है कि भिक्षु हैं, जिन हुए, जिन हैं और जिन होंगे, वे झूठ मैंने आपको बताया था कि जिस प्रकार अंधा संसार की वस्तुओं को नहीं देख पाता तो भी वे होती हैं और जिन्हें दिखाई देता है वे उन वस्तुओं को देख लेते हैं । इसी प्रकार हम जिन बातों को अपने अज्ञानांधकार के कारण अथवा अत्यल्प ज्ञान के कारण नहीं जान पाते, उन्हें सर्वज्ञ, सर्वदर्शी अथवा जिन्हें हम तीर्थंकर या जिन कहते हैं वे जान चुके हैं, देख चुके हैं । उन जिनों के वचनों को आप्तवचन कहा गया है, वही संगृहीत होकर जैनागम कहलाते हैं । Jain Education International खेद की बात है कि अश्रद्धालु श्रावक-श्राविका या साधु-साध्वी भी, जिन हुए हैं, जिन हैं और जिन होंगे, इस बात को असत्य समझ बैठते हैं । जैसा कि मैंने पूर्व में बताया था, व्यक्ति अपने पूर्वजों को भी देख नहीं पाता पर वे हुए अवश्य थे, इसी प्रकार हमारे देख न पाने पर भी जिन हुए हैं यह अनुमान आदि प्रमाणों से स्वतः सिद्ध है । अतः इसमें संदेह या शंका की बात ही नहीं है । भूतकाल में राग-द्वेष को जीतने वाले केवली, अरिहन्त, सर्वज्ञ या जिन कह लें, वे हुए हैं और वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में 'बीस विहरमान' विद्यमान हैं जो वर्तमान के तीर्थंकर हैं, तथा भविष्य में भी तीर्थंकर होंगे । 'समवायांग' सूत्र के मूल पाठ में भविष्य में होने वाले चौबीसों तीर्थंकरों के नाम भी निर्देश कर दिये गये हैं जो कि अपने भरतक्षेत्र में होने वाले हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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