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________________ ४ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग सुख प्रदान कर सकता है किन्तु पुनः-पुनः विभिन्न गतियों में भ्रमण करने से नहीं रोक सकता। ___ मेरा आशय यहाँ यह नहीं है कि आप लोग भौतिक ज्ञान हासिल ही न करें । यह ज्ञान भी सर्वथा व्यर्थ नहीं है क्योंकि आखिर मानव-देह पाने पर और सांसारिक सम्बन्धों से बँधे हुए होने के कारण आपका अपने प्रति और अपने सम्बन्धियों तथा पारिवारिकजनों के प्रति भी अनेक प्रकार के कर्तव्यों को पालन करने का उत्तरदायित्व होता है। किन्तु सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए भी और सुखपूर्वक यह वर्तमान जीवन बिताते हुए भी आपको यह कदापि नहीं भूलना है कि इस जीवन के पश्चात् भी हमारी आत्मा विद्यमान रहेगी और जैसे कर्म हम इस जीवन में करेंगे उसके अनुसार फल प्राप्त करेगी। इसलिए भौतिक ज्ञान की प्राप्ति के साथ-साथ हमें पारलौकिक अथवा आध्यात्मिक ज्ञान भी निरंतर हासिल करते रहने का प्रयत्न करना चाहिये तथा इस जीवन के सुखों के साथ-साथ परलोक में भी सुख हासिल हों, इसका ध्यान रखना चाहिए। पारलौकिक ज्ञान अब प्रश्न उठता है कि पारलौकिक अथवा आध्यात्मिक ज्ञान क्या है और इससे क्या लाभ होता है ? बंधुओ, आध्यात्मिक ज्ञान हमें जीव और जगत् के रहस्य को समझाता है और बताता है कि प्रत्येक प्राणी की आत्मा अनन्त काल से नाना योनियों में परिभ्रमण करती हुई और अपने कृत कर्मों के अनुसार घोर दुःख सहन करती हुई बड़ी कठिनाई से मानव-शरीर की प्राप्ति कर सकी है। अत: इस देह की सहायता से अब हमें इसे कर्म-मुक्त करने का प्रयास करना चाहिए । आध्यात्मिक ज्ञान ही हमें बताता है कि पाप क्या है और पुण्य क्या है, तथा इनके परिणाम किस प्रकार भोगने पड़ते हैं ? मिथ्याज्ञान की अथवा अज्ञान की अवस्था में तो अनन्त काल तक जीव साधना करता हुआ भी पुन:-पुनः संसार सागर में गोते लगाता रहा है क्योंकि अज्ञानावस्था में की हुई साधना उसे इस सागर से पार नहीं लगा सकती । शास्त्रों में कहा भी है जहा अस्साविणि गावं, जाइअंधो दुरुहिया। इच्छइ पारमागंतु अंतरा य विसीयई ॥ -सूत्रकृतांग १-१-२-३१ अर्थात्-अज्ञानी साधक उस जन्मांध व्यक्ति के समान होता है जो छिद्रवाली नौका पर चढ़ कर नदी के किनारे पहुँचने की आकांक्षा तो रखता है, किन्तु किनारा आने से पहले ही मझधार में डूब जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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