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________________ प्रज्ञा-परिषह पर विजय कैसे प्राप्त हो ? ३ कर सकता। क्योंकि अहंभाव तो मनुष्य को उलटा उसके कर्तव्यों से परे करता है तथा कर्तव्य-पालन में बाधा पहुंचाता है । इससे साबित होता है कि गर्व ज्ञान का परिणाम नहीं है अपितु बुद्धि का परिषह ही है। इसलिए प्रत्येक आत्मार्थी व्यक्ति को सर्वप्रथम तो ज्ञान प्राप्त करने में ही बड़ी सावधानी और सतर्कता रखनी चाहिए कि कहीं वह सम्यक्ज्ञान के स्थान पर धोखे से मिथ्याज्ञान तो हासिल नहीं कर रहा है ? क्योंकि मिथ्याज्ञान भी मनुष्य को भ्रम में डाल देता है। उदाहरणस्वरूप अगर समुद्र या नदी के किनारे पर टहलने वाला व्यक्ति चमकती हुई सीप को चाँदी समझ ले तो उसका वह ज्ञान क्या सम्यक्ज्ञान कहलाएगा ? नहीं, वह मिथ्याज्ञान ही होगा। दूसरे अनेक पुस्तकें पढ़कर अगर व्यक्ति अपने आपको ज्ञानी मानकर अहंकार से भर जाए तो उसका वह ज्ञान भी क्या आत्मा को उन्नत बना सकेगा ? नहीं, वह भी कर्म-बन्धन का कारण बनकर उसे नाना गतियों में भ्रमण ही कराता रहेगा। इसलिए बन्धुओ ! हमें ज्ञान का सही स्वरूप समझते हुए आध्यात्मिक ज्ञान हासिल करना चाहिए । ऐसा करने पर ही हम झूठे अहंकार से बच सकते हैं तथा संवर के शुभ मार्ग पर बढ़ सकते हैं । पर अब हमें संक्षेप में यह भी जान लेना चाहिए कि ज्ञान किसे कहते हैं ? उसके कितने प्रकार हैं, और कौन से प्रकार से आत्मा को लाभ हो सकता है ? इहलौकिक ज्ञान गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर ज्ञान को दो भागों में बाँटा जा सकता है—एक इहलौकिक और दूसरा पारलौकिक । इहलौकिक ज्ञान को भौतिक ज्ञान भी कहा जाता है । इसके द्वारा व्यक्ति अपने देश की ही नहीं, अन्य अनेक देशों की राजनीतिक, सामाजिक, भौगोलिक एवं आर्थिक स्थिति का ज्ञान करता है तथा ज्योतिष के द्वारा सूर्य, चन्द्र आदि की गतिविधियों को जान लेता है। किन्तु इन सबको जान लेने से आखिर उसे लाभ कितना होता है ? केवल उतना ही जितना कि उसका वर्तमान जीवन है । अर्थात् इस जीवन को सुखमय बनाने के साधनों की प्राप्ति वह भौतिक ज्ञान से कर लेता है । भौतिक ज्ञान हासिल करके वह अधिकाधिक धन का उपार्जन कर लेता है जिससे सांसारिक भोग-विलास के अधिक से अधिक साधन जुटाए जा सकें और दूसरे अपनी विद्वत्ता का सिक्का भी अन्य व्यक्तियों पर जमाने में समर्थ बना जा सके यह लाभ वह व्यक्ति प्राप्त करता है। पर भौतिक ज्ञान से हासिल की हुई समस्त विशेषताएँ और योग्यताएँ उसके इस जीवन तक ही काम आ सकती हैं क्योंकि इसका लाभ परलोक में नहीं मिल सकता । यह ज्ञान केवल व्यक्ति को इहलौकिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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