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________________ २ आनन्द प्रवचन : सातवां भाग और वह इस कारण भी दुखी होकर आर्तध्यान या शोक करता रहेगा तो भी कर्मों का बन्ध होगा। इस प्रकार ज्ञान-प्राप्ति पर गर्व और अज्ञान के लिए दुःख, ये दोनों ही दुधारी तलवार के समान हैं तथा प्रज्ञा के लिए परिषह का काम करते हैं । अतः मुमुक्षु को इन दोनों से बचना चाहिए । इसके अलावा यहाँ ध्यान से समझने की बात तो यह है कि सम्यक्ज्ञान कभी अहंभाव को पैदा नहीं करता । बुद्धि की तीव्रता से अगर व्यक्ति पढ़-लिख जाता है और अनेक प्रकार की डिग्रियाँ भी हासिल कर लेता है पर उनके कारण अगर वह गर्व से चूर होकर औरों को नगण्य समझने लगता है तो यह मानना चाहिए कि उसका ज्ञान ही सम्यक् नहीं है । रावण शक्तिशाली था और शक्ति के साथ-साथ बुद्धि के कारण भी उसने बहुत ज्ञान और सिद्धियाँ भी हासिल कर ली थीं। किन्तु अपनी बुद्धि या प्रज्ञा का घमण्ड ही उसे ले डूबा । इस बात से स्पष्ट है कि ज्ञान का गर्व प्रज्ञा-परिषह है और जो इसको सहन नहीं कर पाता वह अशुभ कर्मों का बन्धन करता हुआ संसार-सागर में डुबकियाँ लगाता रहता है। ___अपने बचपन में मैंने देखा था कि मेरे गाँव में एक गोसावी बड़ा सिद्ध व्यक्ति था । अपनी मंत्र-शक्ति के बल पर वह सांपों को सहज ही पकड़ लेता था तथा सर्प-दंश से पीड़ित व्यक्तियों को बात की बात में विष से मुक्त कर देता था । किन्तु ज्यों-ज्यों उसकी प्रसिद्धि चारों ओर मंत्रसिद्ध के रूप में होती गई, त्यों-त्यों उसके हृदय में अपने ज्ञान के प्रति गर्व बढ़ता गया और उसके फलस्वरूप एक दिन सर्प के काटने से ही उसकी मृत्यु हुई। इसीलिए भगवान आदेश देते हैं कि अपने ज्ञान का गर्व मत करो और उसे परिषह समझ कर उससे बचो । वास्तव में देखा जाय तो ज्ञान गर्व करने की वस्तु ही नहीं है । ज्ञान तो जीव और जगत् को समझने के लिए तथा आत्मिक शक्तियों को जानने के लिए है । जो ऐसा समझता है वह अपने ज्ञान का गर्व के कारण दुरुपयोग नहीं करता, अर्थात् उसे घमण्ड का कारण मानकर आश्रव की ओर नहीं बढ़ता । कहा भी है'सव्व जगुज्जोयकरं नाणं, नाणेण नज्जए चरणं ।' -व्यवहार भाष्य अर्थात्-ज्ञान विश्व के समस्त रहस्यों को प्रकाशित करने वाला है । ज्ञान से ही मनुष्य को कर्तव्य का बोध होता है। तो बन्धुओ, जो ज्ञान विश्व के रहस्यों को प्रकाशित करने वाला और मानव को अपने कर्तव्यों का बोध कराने वाला है वह कभी अहं को पैदा नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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