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________________ प्रज्ञा-परिषह पर विजय कैसे प्राप्त हो? ५ इसलिए बन्धुओ, हमें मिथ्याज्ञान अथवा अज्ञान के अन्तर को समझते हुए सम्यक्ज्ञान या आध्यात्मिक ज्ञान हासिल करना चाहिए। ऐसा करने पर ही हमें आत्म-कल्याण का मार्ग दृष्टिगोचर होगा और हम संवर की आराधना करते हुए कर्मों की निर्जरा में भी संलग्न हो सकेंगे। हमारे आध्यात्मिक ग्रन्थ स्पष्ट कहते हैं-- नाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गोत्ति पन्नत्तो, जिहिं वरदंसिहि ॥ -श्री उत्तराध्ययनसूत्र, अ० २८ अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप, इनका आराधन ही मोक्ष का मार्ग है, ऐसा सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी जिनराज कहते हैं । जिन भगवान सर्वदर्शी होते हैं और वे एक स्थान पर रहकर ही सब कुछ देख लेते हैं । उनकी दिव्यदृष्टि के सामने पर्वत, दीवाल, परदा या अन्य कोई भी वस्तु बाधक नहीं बन सकती। जबकि हमारे समक्ष तो एक साधारण वस्त्र का परदा भी लगा दिया जाय तो उसके दूसरी ओर क्या हो रहा है यह हम नहीं देख सकते । आप विचार करेंगे कि आखिर हमारे समान मानव-देह पाकर भी उन्हें ऐसी दिव्यदृष्टि कैसे प्राप्त हो गई और हमें वह क्यों नहीं मिल पाती ? इसका स्पष्ट और सत्य समाधान यही है कि उन महापुरुषों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की सम्यक् आराधना की थी। अपनी आत्मा के निज स्वरूप की पहचान करते हुए उन्होंने विषय-विकारों का सर्वथा त्याग करके अपनी आत्मा को निर्मल बनाया था। क्रोध, मान, माया और लोभ का उनके मानस से सर्वथा निष्कासन हो चुका था । ज्ञान के गर्व को वे यथार्थ में घोर परिषह मानते थे और उससे कोसों दूर रहते थे। किन्तु हम क्या ऐसा कर पाते हैं ? आध्यात्मिक ज्ञान तो दूर की बात है, चार पुस्तकें पढ़कर ही हम घमंड में चूर होकर औरों को अज्ञानी और अपने आपको महाज्ञानी समझने लगते हैं। इसका परिणाम यही होता है कि दिव्यदृष्टि तो दूर, जो भी हम पढ़ते हैं वह भी हमारे आत्मोत्थान में सहायक न बनकर पतन का कारण बनता है। कहने का अभिप्राय यही है कि ज्ञान का गर्व आत्मा के पतन का कारण बनता है और इसीलिए इसे परिषह समझकर इससे दूर रहते हुए समभाव रखना चाहिये । जो भव्य प्राणी ऐसा कर सकता है वही ज्ञान का सच्चा लाभ हासिल करता है तथा औरों को भी सन्मार्ग बता सकता है । एक छोटा सा दृष्टांत है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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