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________________ का वर्षा जब कृषि सुखानी १४७ बस, इसीलिए आज की नाजुक परिस्थिति में संगठन की बड़ी भारी आवश्यकता है और उदार धनिकों की आवश्यकता है जो धर्म का रक्षण करें यानी अपने समाज के धनहीन और धर्महीन व्यक्तियों को आश्रय देकर सन्मार्ग पर लाएँ । आज समाज में ऐसे-ऐसे कुटुम्ब भी हैं जो आधा पेट अन्न भी नहीं जुटा सकते, और भूखे रहने पर वे धर्म का मर्म क्या समझेंगे ? कहते भी हैं "भूखे भगति न होई गोपाला !" बेचारा दरिद्र और भूखा व्यक्ति यही कहता है-“हे प्रभु ! भूखे पेट तो हम आपकी भक्ति नहीं कर सकते ।" बात सत्य भी है। धर्म-साधना शरीर के द्वारा ही हो सकती है और शरीर तभी चलता है, जबकि वह व्याधिग्रस्त न हो और उसे थोड़ा-बहुत अन्न भी उदर में डालने के लिए मिलता रहे। बड़े-बड़े साधक भी शरीर को धर्म-साधन में सहायक मानकर उसे रूखा-सूखा ही सही, पर कुछ तो उदर में डालने के लिए देते ही हैं। __ भोजन पहले चाहिए, उपदेश उसके बाद कहा जाता है कि भगवान बुद्ध बौद्ध धर्म का प्रचार करते हुए यत्र-तत्र भ्रमण कर रहे थे। एक बार वे किसी गाँव में ठहरे तथा अपने सदुपदेशों के द्वारा वहाँ के निवासियों को धर्म का मर्म समझाने लगे। ___ उनके शिष्य आनन्द भी इस कार्य में बड़ा सहयोग देते थे। एक दिन वे जब भिक्षा लेकर लौटे तो देखा कि एक व्यक्ति सड़क के किनारे पर किसी वृक्ष के नीचे लेटा हुआ है । आनन्द ने सोचा-'इसे भी धर्म के विषय में समझाना चाहिए।' वे उसके पास गये और कुछ सरल-सी बातें समझाने का प्रयत्न करने लगे । किन्तु उस व्यक्ति ने आनन्द की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया और मुंह फेर कर लेट गया । यह देखकर आनन्द वापिस अपने स्थान पर लौट आए, पर उस व्यक्ति को प्रबुद्ध करने की भावना उनके हृदय से नहीं गई और वे दो-तीन बार और भी उसके पास गये । पर आश्चर्य की बात थी कि उस व्यक्ति ने एक बार भी आनन्द की बातों को सुनने में रुचि नहीं दिखाई और पूर्ववत् पड़ा रहा । अन्त में कुछ खिन्न होकर वे बुद्ध के समीप आए और बोले-"भगवन् मैं देखता हूँ कि प्रत्येक स्थान पर लोग बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ धर्मोपदेश सुनते हैं और उसे ग्रहण करते हैं। किन्तु यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक ऐसा नास्तिक व्यक्ति लेटा हुआ है जो जागते रहकर भी वह धर्म की एक भी बात सुनना पसंद नहीं करता । मैं कई बार उसके पास गया और उसे समझाने की चेष्टा की, पर वह टस से मस नहीं होता।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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