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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
भगवान बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनन्द की बात को ध्यान से सुना पर कोई उत्तर न देते हुए उन्होंने कुछ खाने की वस्तुएँ अपनी झोली में रखीं और उठ खड़े हुए । आनन्द चकित हुए पर बोले कुछ नहीं ।
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बुद्ध ने कहा - " वत्स ! कहाँ है वह व्यक्ति ? मुझे मार्ग बताओ ।" आनन्द चुपचाप अपने गुरु के साथ हो लिए । धीर कदमों से चलते हुए बुद्ध आनन्द सहित उस व्यक्ति के पास पहुँचे और बोले
"भाई ! उठो, यह थोड़ा-सा भिक्षान्न है, इसे ग्रहण करो ।"
उस व्यक्ति ने आँखें खोलीं पर विश्वास न होने के कारण कुछ उत्तर नहीं दिया । किन्तु बुद्ध ने जब अपनी बात पुनः दोहराई तब वह उठा और देखा स्वयं बुद्ध उसके समीप कुछ खाद्य पदार्थ झोली से निकाल कर रख रहे हैं । बड़ी कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से व्यक्ति ने बुद्ध को नमस्कार किया और उनके दिये हुए अन्न को खाने लगा । खाने के पश्चात् जब वह सुस्थिर हुआ तो बोला"भगवन् ! मुझे भी आत्म-कल्याण का मार्ग सुझाइये ।”
बुद्ध ने बड़े प्रेम से उसे कुछ बातें समझाईं जिन्हें समझते ही वह उनके साथ हो लिया और बोला- “प्रभु ! मैं आज से ही आपका शिष्य बनना चाहता हूँ तथा धर्म की शरण लेना चाहता हूँ ।"
लौटते समय जब बुद्ध ने आनन्द की विस्मय-विह्वल दृष्टि को देखा तो स्नेहपूर्वक बोले - "आनन्द, तुम्हें इस पर आश्चर्य हो रहा होगा कि इस व्यक्ति ने तुम्हारा उपदेश क्यों नहीं सुना ? बात केवल यही थी कि यह व्यक्ति संभवतः कई दिनों से निराहार था, और ऐसी स्थिति में तुम इसे धर्मोपदेश सुनाने जा रहे थे । पर वत्स ! धर्मोपदेश से पहले उसे भोजन की आवश्यकता थी । भूखे पेट भला वह तुम्हारा उपदेश कैसे सुनता ? मनुष्य को सबसे पहले भोजन की आवश्यकता होती है । उसके अभाव में कभी उसका चित्त धर्म-साधना में नहीं लग सकता । अच्छा हुआ, हम समय पर पहुँच गये, अन्यथा सम्भव है उसका बचना ही कठिन हो जाता, धर्मोपदेश तो दूर की बात थी । "
तो बंधुओ, आप समझ गये होंगे कि प्रत्येक व्यक्ति को सर्वप्रथम अन्न की आवश्यकता होती है, वह मिलने पर ही उसे धर्म - साधना सूझ सकती है । हम और आप भी यह चाहते हैं कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति धर्म को समझे और उसे ग्रहण करके जीवन में उतारे, किन्तु उससे पहले जो दरिद्र, असहाय एवं अनाथ परिवार हैं, उन्हें उदर-पूर्ति के लिए अन्न तथा लज्जा ढकने के लिए वस्त्र मिलना कितना आवश्यक है ?
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