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का वर्षा जब कृषि सुखानी
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व्यवहार को निर्दोष बनाये तभी अधिवेशनों का तथा संगठन के प्रयत्नों का होना सफल माना जा सकता है ।
उच्च जीवन के मूल आधार
जीवन उन्नत कैसे बने ? इस प्रश्न का उत्तर बिना हिचकिचाहट के यही दिया जा सकता है कि सत्य, अहिंसा एवं अपरिग्रह को जीवन में उतारा जाय जब तक ये तीनों बातें जीवन -सात् नहीं होंगी, व्यक्ति का जीवन निःस्वार्थी, निर्लोभी, निरहंकारी, या एक ही शब्द में निर्दोषी नहीं बन सकेगा । जीवन के साथ इन तीनों महत्त्वपूर्ण गुणों को न जोड़ने से व्यक्ति के जीवन में और जीवन में रहने से समाज में भी अनेकानेक विषमताएँ उठ खड़ी होंगी । पर इन विषमताओं का जन्म ही न हो, इसके लिए संगठन की और अधिवेशनों की आवश्यकता मानी जाती है । इस आवश्यकता को महसूस करने के कारण ही समाज के नेता प्रयत्न करते हैं और वे जब एकत्रित होकर विचार-विमर्श करते हैं तब उनकी निर्धारित कार्य-प्रणाली पर व्यक्ति चलता है ।
धर्म और राज्य - प्रसन्नता की बात है कि संगठन के लिए आयोजित इस अधिवेशन में लोकप्रिय मुख्यमंत्री भी भाग ले रहे हैं । ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि राज्य के शासन की बागडोर जिन व्यक्तियों के हाथ में है उन्हें अपनी कार्यप्रणाली में धर्म और नीति को प्रथम स्थान देना चाहिए । धर्म और राज्य अन्योन्याश्रित हैं । दोनों को ही एक-दूसरे की सहायता की आवश्यकता है और दोनों एक-दूसरे के बिना टिक नहीं सकते ।
हमारा इतिहास बताता है कि प्राचीनकाल में भी राजा धर्मानुसार शासन करते थे और धर्म भी राज्याश्रय से अपने गौरव को यथाविधि प्राप्त करता था । परिणाम यह होता था कि जो राज्य धर्मानुसार चलता था, वहाँ व्यक्ति पूर्ण सुख और शांति का अनुभव करते थे, पर इसके विपरीत जो राज्य अधर्म की नींव पर खड़े रहने की कोशिश करते थे, वे नष्ट हो जाते थे । कौरवों का राज्य, कंस का राज्य, रावण का राज्य और हिरण्यकश्यप जैसे अधर्मी राजाओं के राज्यों के उदाहरण आप लोगों के सम्मुख अनेक बार आ ही चुके हैं कि वे किस प्रकार जड़ से नष्ट हुए थे ।
कौरवों ने पाण्डवों को धोखा दिया था, रावण ने अहंकार और कुशील को अपनाया था, कंस ने हिंसात्मक कार्य किये थे और हिरण्यकश्यप तो धर्म या भगवान को ही नहीं मानता था । इस प्रकार धोखेबाजी, अहंकार, कुशील, हिंसा आदि ये सब धर्म के विरुद्ध हैं और जिन्होंने इन्हें अपनाया वे राजा आज भी कुयश के पात्र बनकर स्मरण किये जाते हैं । ऐसे राजाओं के नामों
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