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________________ १३६ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग भी संसार से नाता नहीं रखते तथा आत्मा को ही अपनी मानकर उसके कल्याण का प्रयत्न करते हैंउर्दू भाषा के प्रसिद्ध शायर जौक ने भी कहा है जिस इन्साँ को सगे दुनिया न पाया। फरिश्ता उसका हमसाया न पाया। यानी-जो मानव संसार का दास नहीं होता अर्थात् सांसारिक सम्बन्धियों में या सांसारिक वस्तुओं में आसक्ति नहीं रखता वह देवताओं से भी महान् है । वास्तव में देवता भले ही स्वर्ग में कुछ काल तक अपार सुख का अनुभव करलें, किन्तु वहाँ का जीवन समाप्त करने के पश्चात् पुनः उन्हें जन्म-मरण करना पड़ता है क्योंकि वहाँ के सुखों में गृद्ध रहने के कारण वे रंचमात्र भी आत्मसाधना नहीं करते । किन्तु जो मनुष्य सांसारिक सुखों से विरक्त रहकर उत्कृष्ट आत्म-साधना में जुट जाता है वह पुनः जन्म-मरण न करता हुआ देवताओं से भी ऊँची पाँचवीं गति, यानी मोक्ष, में जा सकता है। आवश्यकता है-सच्ची साधना की; साधना के दिखावे की नहीं। राजा प्रदेशी ने हत्यारा होते हुए भी जिस समय केशी स्वामी के संपर्क से अपने आपको बदला तो अन्दर और बाहर से सचमुच ही बदल गया । बदलने का दिखावा नहीं किया और दिखावे की साधना नहीं की । परिणाम यह हुआ कि जीवन भर के पापों की केवल चालीस दिन में ही निर्जरा कर डाली। अगर उसने अपने-आप को सचमुच में न बदला होता तो क्या जानते-बूझते हुए भी अपनी रानी के द्वारा पिलाया हुआ जहर पी लेता ? नहीं, उसके पास शक्ति थी। जिससे वह रानी को सजा देता और अपार धन था जिससे हकीमों या वैद्यों का घर भर कर जहर का असर समाप्त करवा लेता। किन्तु उसके हृदय में संसार से सच्ची विरक्ति हो गई थी, राग-द्वेष कम हो गये थे और शरीर के प्रति अनासक्ति का भाव आ गया था । यानी शरीर रहे तो क्या और न रहे तो क्या, ऐसी भावना हो गई थी। अन्यथा अपने ध्यान से रंचमात्र भी डिगे बिना गजसुकुमाल मुनि ने जिस प्रकार सोमिल ब्राह्मण के द्वारा अपने मस्तक पर धधकते हुए अंगारे रखवा लिये थे, उसी प्रकार प्रदेशी राजा भी विष-पान कैसे करते । गजसुकुमाल मुनि ने मस्तक पर अंगारों का रखा जाना अपने कर्मों की निर्जरा में सहायक माना था, उसी प्रकार प्रदेशी ने भी विष-पान करना कर्मों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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