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________________ सच्ची गवाही किसको ? १३७ से मुक्त होने का साधन मान लिया तथा विष को अमृत अर्थात् अमरत्व प्राप्त करने में सहायक समझा था। किसी कवि ने साधक को प्रेरणा देते हुए कहा है कि-"अगर तुझे शिवपुर की प्राप्ति के लिए सच्ची साधना करनी है तो चाहे अमृत मिले या विष, उसे समान भाव से ग्रहण कर ।” कविता के कुछ पद्य इस प्रकार हैं अमृत अगर मिले तो अमृत ही पिये जा ! विष को भी परिणत अमृत में किये जा ! कड़वी भी चूंटे समय की पिये जा ! विष को भी"। साधना-मार्ग के सच्चे पथिक को उद्बोधन देते हुए कहा गया है-“भाई ! साधना का पथ आराम पहुँचाने वाला नहीं है, यह काँटों का मार्ग है। किन्तु अगर तुझे संसार के मुक्त होने की आत्मिक चाह है तो इस मार्ग में आने वाली विघ्न-बाधाओं से घबरा मत तथा हृदय को कषाय भाव से सर्वथा मुक्त रखते हुए अगर अमृत मिलता है तो उसका पान करले और विष मिलता है तो उसे भी अमृत मानकर ग्रहण करता चल ! मानव-जीवन में मिला हुआ यह दुर्लभ समय अनन्त पुण्यों के योग से प्राप्त हुआ है और निरर्थक चला गया तो फिर कब मिलेगा या मिलेगा ही नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। अतः इस समय मीठी या कड़वी घंटें जो भी लेनी पड़े पूर्ण समभाव से कण्ठ के नीचे उतारता चल ।” वस्तुतः चातक के लिए प्रथम तो स्वाति नक्षत्र का योग मिलना कठिन है और उससे भी कठिन है उसी समय वर्षा की बूंद का प्राप्त होना । महा मुश्किल से उसे ये दोनों सुयोग मिलते हैं और वह अपनी पिपासा को शांत कर पाता है । ठीक इसी प्रकार जीव को प्रथम तो मानव-जीवन मिलना ही दुर्लभ है, और उससे भी दुर्लभ है मन का इर्ष्या, द्वेष, मत्सर स्वार्थ, लोभ, अहंकार एवं मोह-ममता आदि से दूर होकर परमार्थ साधन में लगना । एक प्रसिद्ध विचारक ने 'बारह भावना' नामक पुस्तक में लिखा है मानव भव पाकर भी कितने मनुज सुखी होते हैं, विविध व्याधियों के वश होकर अगणित नर रोते हैं। अंगोपांग विकल हो अथवा पागल होकर अपनाजीवन हाय बिताते, कब हो पूरा मन का सपना ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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