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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
केशी श्रमण के उपदेशपूर्ण उत्तरों को सुनकर राजा प्रदेशी की आँखें खुल गईं और उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि आत्मा, परलोक, स्वर्ग, नरक एवं मोक्ष निश्चय ही हैं तथा पापों के कारण संसार-भ्रमण बढ़ता है और कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा सदा के लिए संसार से मुक्त हो जाती है।
यह विचार आते ही उन्होंने राज्य-कार्य छोड़कर आत्म-कल्याण के मार्ग को अपना लिया। इसी को 'जब जागे तभी सबेरा' कहते हैं । कहाँ तो नित्य जीवों का घात करते हुए वह अपने हाथ खून से सने रखता था और कहाँ केशी स्वामी की अल्प-संगति से ही कर्मों का घात करने में जुट गया।
जब केशी श्रमण वहाँ से अन्यत्र जाने के लिए तैयार हुए तो राजा प्रदेशी ने बड़े भाव-मीने शब्दों में उन्हें वन्दन-नमस्कार करते हुए अन्तिम उपदेश देने की प्रार्थना की। केशी स्वामी ने भी अत्यन्त गद्गद होकर राजा को केवल यही शब्द कहे
मा णं तुम पएसी! पुव्वं रमणिज्जे भवित्ता, पच्छा अरमणिज्जे भवेज्जासि ।
-राजप्रश्नीय सूत्र, ४८२ अर्थात्- "हे राजन् प्रदेशी ! तुम जीवन के पूर्वकाल में रमणीय होकर उत्तरकाल में अरमणीय मत बन जाना ।"
कितनी संक्षिप्त, सुन्दर एवं गूढार्थ से भरी हुई शिक्षा थी। जिसमें यही भाव निहित था कि इस समय तुम अपनी नास्तिकता को, अश्रद्धा को, मिथ्यात्व को एवं हिंसक भाव को त्याग कर संयमी बन गये हो अतः सबके अत्यन्त प्रिय पात्र हो । किन्तु कुछ समय पश्चात् शंका-सन्देहों से घिरकर कल्याणकारी धर्म के मार्ग को पुनः छोड़कर सबके मन को अप्रिय लगने वाले मत बन जाना।
राजा प्रदेशी भव्य प्राणी था। यद्यपि उसने जीवन में हत्या जैसे पापों का ढेर जमा कर लिया था, किन्तु अन्तिम चालीस दिनों में ही ऐसी उत्कृष्ट साधना की कि उसके फलस्वरूप समस्त पाप-कर्मों को घास के ढेर के समान जलाकर खाक कर दिया।
दुर्भाग्यवश उसकी सूर्यकान्ता रानी, जिसे वह प्राणों से भी अधिक प्यार करता था, उसी ने उपवास के पारणे में जहर दे दिया। किन्तु प्रदेशी के मन में इतनी समत्व की भावना आ गई थी कि रानी ने जहर दिया है यह जान लेने पर भी और मरणांतक कष्ट का अनुभव होने पर भी उसने रानी पर क्रोध नहीं किया तथा रंच मात्र भी द्वेष नहीं आने दिया । उलटे उसे, अपना उपकारी माना
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