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________________ सच्ची गवाही किसकी ? "तो फिर वे क्यों नहीं मेरे पास कभी आईं और मुझे धर्म-कार्य की प्रेरणा दी ? स्वर्ग में तो नरक के जैसे बन्धन नहीं हो सकते अतः वे आ सकती थीं । उनके स्वर्ग से न आने के कारण मुझे विश्वास नहीं होता कि स्वर्ग कहीं है ।" केशी स्वामी बोले – “तुम्हारी दादी के भी स्वर्ग से न आने के कारण स्वर्ग नहीं है, ऐसा मत सोचो। क्योंकि तुम्हारी दादी स्वर्गीय जीवन बिता रही हैं और उनके लिए मृत्युलोक अत्यन्त दुर्गन्धमय है । यहाँ की दुर्गन्ध तो पाँच सौ योजन ऊपर तक जाती है ।" “यह कैसी बात है महाराज ? मैं तो उनका पौत्र ही हूँ और मुझे वे प्राणों से भी ज्यादा प्यार करती थीं, तो क्या वे अपने कुल के रक्त से निर्मित पौत्र के लिए भी आपके कथनानुसार इस दुर्गन्धमय लोक में नहीं आ सकतीं ?" १३३ राजा की बात सुनकर केशी श्रमण कुछ मुस्कुराए और उत्तर में बोले"हे राजन् ! प्रथम तो तुम्हारी दादीजी के एक तुम ही इस मृत्युलोक में सम्बन्धी नहीं हो, क्योंकि आत्मा अनन्त काल से संसार - परिभ्रमण कर रही है अतः उसके सभी जीवों से सभी प्रकार के सम्बन्ध होते रहे हैं । कहा भी है सब जीवों से सब जीवों के सब सम्बन्ध हुए हैं । लोक प्रदेश असंख्य जीव ने अगणित बार हुए हैं । "तात्पर्य यही है कि तुम्हारी दादी के तुम्हारे समान अनेक पौत्र - प्रपौत्र किसी न किसी जन्म के यहाँ होंगे और वे किस-किसको बोध देने के लिए इस दुर्गन्धमय पृथ्वी पर आ सकती हैं ? " फिर भी अगर तुम विचार करो कि मैं इस पृथ्वी पर उनके इसी जन्म का पौत्र हूँ और उन्हें आना ही चाहिए था भले ही यह लोक कितना भी दुर्गन्धमय क्यों न हो, तो उनके न आने का कारण एक दृष्टान्त से समझो। मुझे यह बताओ कि अगर तुम सुगन्धित उबटनादि से स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करो तथा उन पर और इत्र आदि छिड़क कर दरबार में जाने के लिए तैयार होओ। ठीक उसी समय तुम्हारे महल की मेहतरानी विष्टा की टोकरी उठाने के लिए आ जाय, पर उसे उठा न पाने के कारण तुमसे कहे - 'महाराज ! जरा यह टोकरी हाथ लगाकर मेरे सिर पर रखवा दीजिये । इसमें आपके और आपके परिवार वालों के द्वारा त्यागी हुई वस्तु ही है, अन्य घर की नहीं ।' तो क्या तुम अपने राजघराने की गन्दगी होने पर भी उस टोकरी से हाथ लगाओगे ? नहीं, उलटे उससे दूर भागोगे । बस इसी प्रकार तुम्हारी दादी भी यहाँ की दुर्गन्ध को सहन न कर पाने के कारण तुम्हारे पास नहीं आतीं, भले ही तुम उनके पौत्र हो ।” Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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