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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
नहीं मानते तो फिर और किसकी मानेंगे ? असली बात तो केवल यही है कि आपको धर्माचरण, तप, त्याग एवं साधना आदि करके शरीर को कष्ट न देने का बहाना चाहिए और वह बहाना आप अब तक तो पकड़े हुए हैं ही, सम्भवतः जीवन भर के लिए भी पकड़े रहेंगे । पर इससे आपका क्या लाभ और कितनी हानि होगी यह आप ही विचार करें तो ठीक है क्योंकि सन्त तो आपको उपदेश दे-देकर प्रयत्न कर चुके हैं।
जिस प्रदेशी राजा का प्रसंग आपके सामने चल रहा है, वह भी हत्यारा था, नास्तिक था और आत्मा के अस्तित्व को तथा परलोक को कतई नहीं मानता था । किन्तु पहली बार ही केशी श्रमण का उपदेश सुनकर और कुछ प्रश्नोत्तर करके उसने अपने आपको अविलम्ब बदल लिया था तथा आत्मसाधन में जुट गया था।
हम अभी इसी विषय को लेकर चल रहे हैं कि उसने केशी स्वामी से किस प्रकार प्रश्न पूछे और केशी स्वामी किस प्रकार उनका समाधान कर रहे हैं ? राजा प्रदेशी ने नरक को न मानते हुए प्रश्न किया था कि- "मेरे दादाजी अगर नरक में गये हैं तो उन्होंने कभी वहाँ से आकर मुझे क्यों नहीं समझाया कि तुम ऐसे पाप-कार्य मत करना जैसे मैंने किये हैं और जिनका फल मैं घोर दुःखों के रूप में भोग रहा हूँ ।” __ केशी स्वामी ने इस प्रश्न के उत्तर में प्रदेशी से कहा था-"जिस प्रकार तुम अपनी पटरानी सूर्यकान्ता से सम्बन्ध स्थापित करने वाले व्यभिचारी पुरुष को उसके घरवालों के पास जाने देने के लिए एक मिनिट को भी नहीं छोड़ सकते, उसी प्रकार तुम्हारे दादाजी को भी नरक के यमदूत तुम्हारे पास कुछ काल के लिए भी आने की छुट्टी नहीं देते।"
यह सुनकर प्रदेशी राजा क्षणभर स्तब्ध रहा, फिर कुछ विचार कर उसने दूसरा प्रश्न किया
“महाराज ! सम्भव है आपकी बात सही हो और दादाजी को जीवन भर घोर पाप करने के कारण उन्हें नर्क से मेरे पास आने नहीं दिया गया हो; किन्तु मेरी दादीजी तो महान् धर्मपरायणा नारी थीं। वे सदा सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, उपवास, जप-तप एवं दीन-दुखियों को दान करती थीं, तो जीवन भर धर्म-कार्यों में रत रहने के कारण वे स्वर्ग में गई होंगी ?"
"निश्चय ही तुम्हारी दादी स्वर्ग में गयी हैं, राजन् !” केशी स्वामी ने उत्तर दिया।
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