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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
देह छोड़ने के पश्चात् उसकी आत्मा नरक में जाकर घोर दुःख भोगती है। इसके अलावा जो भव्य प्राणी अपने समस्त शुभाशुभ-कर्मों का क्षय कर लेते हैं, उनकी आत्मा पूर्णतया कर्म-मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेती है। मोक्ष में जाने के पश्चात् आत्मा को फिर जन्म-मरण नहीं करना पड़ता क्योंकि उसे शाश्वत सुख की प्राप्ति हो जाती है।"
केशी श्रमण की बात सुनकर प्रदेशी ने अपना अगला प्रश्न किया
"महाराज ! जब आप यह मानते हैं कि व्यक्ति के शुभ कर्म करने पर उसकी आत्मा स्वर्ग में और अशुभ कर्म करने पर नरक में जाती है, तब तो मेरे दादा जी जो कि धर्म-कर्म कुछ मानते ही नहीं थे और कभी परोपकारादि अच्छे कार्य नहीं करते थे जिन्हें आप पुण्य का कारण कहते हैं, वे नरक में गये होंगे ?"
"गये होंगे क्या ? निश्चय ही नरक में गये हैं।" केशी स्वामी ने अविलम्ब उत्तर दिया। __"पर अगर वे अपने बुरे कार्यों के कारण नरक में गये हैं तो उन्होंने कभी आकर मुझे क्यों नहीं कहा कि
"तुम अन्याय, अनीति या अन्य पापकर्म मत करना अन्यथा मेरी तरह तुम्हें भी घोर दुःख उठाने पड़ेंगे । मेरे दादाजी का तो मैं बड़ा प्यारा पौत्र था । वैसे भी संसार में देखा जाता है कि घर के बुजुर्ग, जिस कार्य से हानि होती है, उसे न करने की बच्चों को सीख अवश्य देते हैं, पर कभी दादाजी ने आकर मुझे नरक और उसके दु:खों के विषय में बताते हुए यह नहीं कहा । इसलिए मैं समझता हूँ कि वे नरक में नहीं गये हैं और मेरे विचार में नरक तो कहीं है ही नहीं।"
राजा की यह बात सुनकर केशी श्रमण मन्द-मन्द मुस्कराते हुए बोले"राजन् ! तुम्हारी पटरानी सूर्यकांता है न ?"
"हाँ महाराज !" राजा कुछ गर्वपूर्वक बोला । वे सोच रहे थे कि मैं कितना प्रसिद्ध हूँ जो मेरी पटरानी तक के विषय में सभी लोग, यहाँ तक कि संत-मुनि भी जानते हैं, पर वे यह नहीं जानते थे कि केशी स्वामी चार ज्ञान के धारक हैं और दूसरे व्यक्तियों के मन की बात भी जान लेते हैं। इसके अलावा संत निडर होते हैं और सत्य कहने से कभी पीछे नहीं हटते, चाहे कोई उन्हें मरणान्तक कष्ट भी क्यों न दे ! ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि मृत्यु से उन्हें रंच मात्र भी भय नहीं होता । वे मौत का केवल पुराना वस्त्र खोलकर नया
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