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________________ अपराधी को अल्पकाल के लिए भी छुटकारा नहीं होता ११३ और शरीर के नष्ट हो जाने पर वह परलोक गमन करती है। राजा प्रदेशी प्राणियों को मार-मारकर उनके शरीरों में आत्मा की खोज करता था तथा उसे किसी के भी शरीर में न पाकर आस्तिकों का परिहास किया करता था। किन्तु प्रदेशी राजा का चित्त नामक मंत्री जो कि केशी श्रमण के दर्शन करके और उनका उपदेश सुनकर नास्तिक से आस्तिक हो गया था, वह अपने राजा को भी धर्म के मार्ग पर लाने के लिए कटिबद्ध हो गया । अपने उद्देश्य को सफल करने के लिए उसने श्रावस्ती में विराजित केशी स्वामी से अपनी श्वेताम्बिका नगरी में पधारने का अत्यधिक आग्रह किया और उनके पधारने पर कम्बोज देश के घोड़ों की चाल देखने के बहाने से किसी प्रकार राजा को केशी श्रमण की प्रवचन-सभा में ले गया। राजा ने पहले तो मुनिराज को नमस्कार ही नहीं किया और आत्मा के विषय में सीधा प्रश्न पूछा । किन्तु मुनिराज के यह बताने पर कि धर्म-सभा में सर्वप्रथम किस प्रकार शिष्टाचार एवं विनय रखना चाहिए, वह समझ गया और तत्पश्चात् केशी स्वामी से बैठने की आज्ञा लेकर अपना प्रश्न पूछने की इजाजत चाही । इजाजत सहर्ष मिल गई । आज हमें यह देखना है कि राजा ने किस प्रकार अपना प्रश्न मुनिराज के सामने रखा ? आत्मा शरीर से भिन्न कैसे ? राजा प्रदेशी ने केशी श्रमण से प्रश्न किया--"महाराज ! आप आत्मा को शरीर से अलग मानते हैं, वह क्यों ?" “इसीलिए कि वह शरीर से अलग ही होती है। अगर आत्मा शरीर से अलग न होती तो शरीर कभी चेतना रहित न होता। किन्तु हम देखते हैं कि जब तक आत्मा शरीर में विद्यमान रहती है तभी तक वह गति करता है और उसके अलग हो जाने पर निश्चेतन हो जाता है।" केशी स्वामी ने उत्तर दिया। राजा ने फिर प्रश्न किया-"आपके कथनानुसार मरने पर आत्मा शरीर से अलग हो जाती है तो फिर उसका क्या होता है ?" "राजन् ! आत्मा शाश्वत है वह समाप्त नहीं होती यानी मरती नहीं, पर व्यक्ति जैसे कर्म करता है उनके अनुसार अन्य गतियों में जाकर भिन्न-भिन्न देहों को धारण करती है तथा कर्मानुसार सुख या दुख भोगती है । अगर व्यक्ति शुभ-कर्म करता है तो आत्मा स्वर्ग में देवगति के सुख प्राप्त करती है और अगर व्यक्ति जीवन में पाप कर-करके अशुभ कर्मों का संचय कर लेता है तो यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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