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इहलोक मोठा, परलोक कोणे दिठा
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ग्रह से तभी हो सकेगा जबकि हमारे महाराज प्रदेशी बोध प्राप्त करें। जिस देश का राजा धर्मात्मा होता है उसकी प्रजा भी शीघ्र सुधर जाती है । अतएव कृपा करके आप राजा साहब को उपदेश सुनाने का अवसर प्रदान करें।"
केशी श्रमण बोले - "भाई ! उपदेश देना तो संतों का कर्तव्य ही है, पर इसके लिए चार बातें आवश्यक हैं : (१) राजा हमारे उपाश्रय में आए ; (२) जहाँ हम ठहरे हैं, वहाँ आकर पहुँचे (३) जब मुनिराज आहार के लिए निकलें तो विनय प्रदर्शित करे; और (४) मुनि को अपने हाथ से कुछ दान करे। इस प्रकार चारों में से अब बताओ कि तुम्हारे राजा कौनसा कार्य कर सकते हैं ?
गुरुदेव की यह बात सुनकर चित्त मंत्री का चेहरा उदास हो गया और वे बड़े दुःख सहित बोले
“भगवन् ! अपनी नास्तिकता के कारण महाराज आपके उपाश्रय में नहीं आ सकते, आपके समीप बगीचे में नहीं पहुँच सकते, मुनिराज को देखकर विनय भी प्रदर्शित नहीं कर सकते और जबकि वे मुनि को मुनि ही नहीं समझते तो फिर अपने हाथों से दान किस प्रकार देंगे ?"
"तब फिर हम उन्हें उपदेश कैसे दे सकते हैं, भला तुम्हीं बताओ ?"
स्वामीजी की यह बात सुनकर प्रधान जी को बड़ी चिन्ता एवं व्याकुलता हुई कि किस प्रकार राजा को गुरुदेव के समीप लाया जाय ? पर वे एक राज्य के मंत्री थे अतः बुद्धिमान थे। उन्होंने राजा को महाराज के पास लाने का कोई और उपाय सोचना प्रारम्भ किया तथा उसके अनुसार एक दिन चित्त ने अपने महाराज प्रदेशी से निवेदन किया
"हजूर ! कम्बोज देश से जो घोड़े नजराने में आये हैं, एक दिन आप स्वयं ही उनकी चाल देखकर परीक्षा कर लीजिये।" " प्रदेशी ने उत्तर दिया- “यह तो ठीक है मंत्रिवर ! आप जब कहें तब हम घोड़ों की परीक्षा के लिए चलेंगे।" ___मंत्री यही तो चाहता था। उसने प्रोग्राम बनाया और एक दिन प्रातःकाल कम्बोज से आये हुए उत्तम एवं पानीदार घोड़ों को रथ में जुतवाकर राजा प्रदेशी को रथ में बैठकर चलने का अनुरोध किया। प्रदेशी सहर्ष रथ पर बैठा
और चित्त मंत्री ने सारथी का स्थान ग्रहण किया। घोड़े इशारा पाते ही हवा से बातें करने लगे और राज्य से बहुत दूर निकल गये। राजा उनकी चाल आदि देखकर बहुत प्रसन्न हुआ किन्तु घोड़ों के लगातार बिना रुके दौड़ते चले जाने से वह कष्ट का अनुभव करने लगा । अतः बोला-"प्रधान जी ! ये कैसे घोड़े
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