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________________ १०६ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग महाराज ! राजा से आपको क्या अपेक्षा है ? श्वेताम्बिका नगरी में प्रथम तो मैं आपका अनुयायी शिष्य हूँ, दूसरे और भी अनेक धार्मिक व्यक्ति हैं। हम सब को तो आपकी सेवा का लाभ मिल सकेगा। इसके अलावा आपके पदार्पण से वह अनार्य देश भी आर्य बन जायेगा।" केशी स्वामी ने तब उत्तर दिया-"ठीक है द्रव्य, काल एवं भाव की अनुकूलता होने पर उधर आने का अवसर देखेंगे।" चित्त मंत्री को केशी स्वामी के उत्तर से आशा बँध गई और उनके हृदय में अपार प्रसन्नता हुई । लौटते समय उन्होंने मार्ग में सभी गाँवों के व्यक्तियों को बताया कि संभवतः केशी स्वामी इधर पधारेंगे। इस सूचना के साथ ही उन्होंने संतों के ठहरने लायक स्थान के विषय में, विशुद्ध आहार एवं जल के विषय में भी समझाया कि संत किस प्रकार आहार-जल ग्रहण करते हैं ? इसी प्रकार अपने नगर के बाहर बगीचे के वनपाल को भी सभी प्रकार की हिदायतें देते हुए आज्ञा दी कि 'अपने शिष्यों सहित जब महाराज केशी स्वामी पधारें तो मुझे तुरन्त सूचना देना।' हुआ भी ऐसा ही । महाराज अपने पाँच सौ शिष्यों के समुदाय सहित श्रावस्ती से श्वेताम्बिका नगर की ओर पधारे । मार्ग में आये हुए सभी ग्रामों को अपनी चरण-धूलि से पवित्र करते हुए तथा लोगों को कल्याणकारी उपदेश देते हुए वे श्वेताम्बिका नगर के बाहर बगीचे में आकर ठहरे । वनपालक ने चित्त मंत्री के आदेशानुसार संतों को ठहरने का प्रबन्ध कर दिया और अविलम्ब जाकर प्रधानजी को स्वामीजी महाराज के आने की सूचना दी। चित्त मंत्री यह सूचना पाकर हर्ष के मारे फूले न समाये और शहर के सभी लोगों से कहा "नगर के बाहर महामुनि केशी श्रमण अपने पाँच सौ शिष्यों सहित पधारे हैं, अत: आप सब लोग उनके दर्शन, सेवा-भक्ति एवं सदुपदेशों का लाभ लें। कोई इस प्रकार का भय मत रखो कि हमारे महाराज नास्तिक हैं, अतः हमें सजा देंगे। मैं आप सबके साथ हैं।" मंत्री के इस प्रकार कहने पर नगर के लोगों के हृदयों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई और सब प्रमुदित मन से केशी स्वामी के दर्शन व उपदेशों का लाभ लेने के लिए निस्संकोच जाने लगे। पर प्रधानजी को तो राजा को सुधारने की चिंता थी, अतः सुयोग पाकर उन्होंने स्वामी जी महाराज से प्रार्थना की "भगवन् ! आपके यहाँ पधारने से लोगों को अपार प्रसन्नता हो रही है और सभी यथाशक्य लाभ उठा रहे हैं, किन्तु सबसे बड़ा लाभ तो आपके अनु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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