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इहलोक मोठा, परलोक कोणे दिठा १०३ था, सौन्दर्य एवं स्वास्थ्य का धनी था और किसी भी प्रकार का अभाव उसके जीवन में नहीं था।
करणा किसलिए? भाइयो ! सत्पुरुष या संत-महात्मा मानव को प्राप्त हुए भौतिक सुखों को देखकर ही निश्चिन्त नहीं रहते । वे जानते हैं कि सांसारिक सुख तो चंद दिनों के मेहमान हैं । वे यह देखते हैं कि व्यक्ति अपने जीवन में कैसी करनी कर रहा है ? अगर एक राजा भी पाप-पूर्ण आचरण करता है, और अपनी हिंसक-वृत्ति से अशुभ कर्मों का बंध करता है, तो वे यह विचार कर दु:खी होते हैं कि इसकी आत्मा इस जन्म के पश्चात् जन्म-जन्म तक घोर दुःख पायेगी और आत्मा को मिलने वाले उन दुःखों की कल्पना करके वह उसकी आत्मा के लिए तथा वैसी ही अन्य आत्माओं के लिए करुणा एवं दुःख से दयार्द्र हो जाते हैं।
शास्त्रों में दया भी आठ प्रकार की बताई गई है, उनमें से ये हैं-स्व-दया और पर-दया । आप सोचेंगे स्व-दया भी कोई समझने की बात है? उत्तर में यह कहा जा सकता है कि स्व-दया को तो बड़ी गम्भीरतापूर्वक समझना चाहिए।
स्व-दया क्या है ? संसार में अधिकांश व्यक्ति इसे नहीं समझते और समझने की कोशिश भी नहीं करते । वे दया की भावना का उपयोग अन्य व्यक्तियों के सांसारिक दुःखों को दूर करने में करते हैं और अपने-आपको तो अधिक से अधिक सुख पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं। स्व-दया क्या होती है और इसमें कौन-सा रहस्य है, इसे जानना उन्हें जरूरी नहीं लगता और इसके लिए प्रयत्न भी वे नहीं करते।
परन्तु मैं प्रसंगवश आपको बता रहा हूँ क्योंकि सम्भव है आपमें से बहुतों ने स्व-दया शब्द तो आज ही सुना होगा। स्व-दया का अर्थ है अपनी आत्मा पर दया करना। आपकी अपनी आत्मा है, शरीर नहीं। शरीर तो असंख्य बार मिल चुका है और मिलता भी रहेगा, पर आत्मा आपकी वही है और वह सदा आपकी ही रहेगी। अत: जो आपकी चीज है, उस पर दया करके उसे कर्मबन्धनों से बचाना चाहिए और ऐसा करना ही स्व-दया हैं। शरीर को तो कितना भी सुरक्षित रखा जाय तथा पुष्ट बनाया जाय, यह तो एक दिन नष्ट होने वाला है । यह कभी भी आपकी आत्मा का साथ नहीं देगा । किन्तु अगर आप अपनी आत्मा पर दया करके शुभ-कर्म करेंगे तो, वे आत्मा के साथ चलेंगे और उसे परलोक में घोर कष्टों से बचायेंगे । ___ अब बताइये ? स्व-दया का कितना भारी महत्त्व है ? अपनी आत्मा को जन्म-जन्मांतरों तक कष्टों से बचाना क्या स्व-दया नहीं है ? क्या व्यक्ति सहज
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