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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
ही इसका महत्त्व समझ पाते हैं ? नहीं, वे केवल इसी जन्म के दुःखों या सुखों पर दृष्टिपात करते हैं और परलोक को न मानने वाले नास्तिक व्यक्ति तो स्व-दया को परिहास का विषय मानते हैं। इसीलिए हमारे शास्त्र दया की गम्भीर और यथार्थ विवेचना करते हुए प्रत्येक मानव को प्रतिबोध देते हैं । ___ मेरे कहने का अभिप्राय यह नहीं है कि अपनी या पर की आत्मा की दया को ही व्यक्ति देखे और सांसारिक दृष्टि से जैसा कि अभी मैंने बताया था, अपाहिज, रोगी, निर्धन या शोकग्रस्त व्यक्तियों के प्रति दया या करुणा की भावना ही न रखे और उनके दुःखों को मिटाने का प्रयत्न न करे। व्यक्ति को ऐसे मनुष्यों के दुःखों और कष्टों को मिटाने का प्रयत्न तो सबसे पहले करना चाहिए, क्योंकि ये सभी शुभ-कर्म पुण्य का संचय करते हैं तथा उच्चगति में ले जाते हैं । पर इन प्रयत्नों के साथ ही व्रत, नियम, त्याग, संयम एवं तप आदि की आराधना करके मुमुक्षु आत्मा के साथ लगे हुए कर्मों का क्षय भी अवश्य करता चले जो कि आत्म-दया का मुख्य लक्षण है।
यह सत्य है कि पुण्य संचय करने पर स्वर्ग हासिल हो सकता है, लेकिन आत्मा कर्म-मुक्त नहीं होती। कर्मों से सर्वथा मुक्त होने के लिए तो स्वर्ग-सुख रूपी सोने की बेड़ियों को भी तोड़ना ही पड़ेगा। शास्त्रकार कहते भी हैं
हेमं वा आयसं वावि, बंधणं दुक्ख कारणा। महग्घस्सावि दंडस्स, णिवाए दुक्ख संपदा ॥
-ऋषिभाषितानि, ४५/५ -बन्धन चाहे सोने का हो या लोहे का, बन्धन तो आखिर बन्धन ही है । बहुत मूल्यवान डण्डे का प्रहार होने पर भी दर्द तो होता ही है ।
गाथा के वचन यथार्थ हैं । पुण्य-संचय करके भले ही जीव स्वर्ग की प्राप्ति कर ले और बहुत काल तक अपार सुखों का अनुभव करे, किन्तु वह लोक भी अन्त में छोड़ना पड़ता है और उससे जीव को असीम दुःख का अनुभव होता है । अतः सर्वोत्तम यही है कि मुमुक्षु प्राणी अधिकाधिक कर्मों की निर्जरा करने का प्रयत्न करे और पापरूपी लोहे की बेड़ियों को ही बेड़ियाँ न समझकर पुण्यरूपी सोने की बेड़ियों को भी बेड़ियाँ ही समझे और दोनों से बचने के लिए सच्ची साधना करे । तभी वह स्व-दया का पारखी समझा जा सकता है और 'स्व' पर यानी अपनी आत्मा पर दया करते हुए उसे सदा के लिए कर्ममुक्त कर शाश्वत सुख की प्राप्ति करा सकता है ।
तो बन्धुओ, प्रसंगवश दया को लेकर हम अपनी मूल बात से कुछ दूर
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