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________________ १०२ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग जहाँ बाधा पड़ती हो और धर्म के नाम पर अशांति का वातावरण बनता हो, उस क्षेत्र में विचरण नहीं करते। इसके अलावा जब वे चातुर्मास करते हैं तब भी सोलह बातों का ध्यान रखते हुए करते हैं । उन सभी को बताने की यहाँ आवश्यकता नहीं है, पर उनमें से कुछ बातें हैं— जहाँ का राजा न्यायी हो, श्रावक सुलभ हों, पाखंड मत न हो या कम हो, निरवद्य मकान मिलता हो, भिक्षा निर्दोष मिल सकती हो और ज्ञान-ध्यान आदि की सुविधा हो ऐसे स्थानों पर ही संत वर्षाकाल व्यतीत करने की भावना रखते हैं । तो, श्वेतांबिका नगरी का राजा प्रदेशी स्वयं ही अश्रद्धालु, अधर्मी और क्रूर था । अतः संतों का आगमन वहाँ कठिन था । जब राजा ही अन्यायी होगा तो बाकी सभी बातें संतों के अनुकूल किस प्रकार हो सकेंगी ? चित्त बदल गया संयोग की बात थी कि उस नास्तिक राजा का नास्तिक मन्त्री 'चित्त' एक बार श्रावस्ती नगरी के राजा जितशत्रु की सेवा में नजराना लेकर गया । वहाँ उस समय मुनि श्री केशी स्वामीजी महाराज विराज रहे थे । चित्त प्रधान को उनके उपदेश सुनने का मौका मिला और उन उपदेशों का चित्तमन्त्री पर इतना असर हुआ कि उसकी धर्म पर श्रद्धा हो गई और उसने श्रावक के व्रतों को भी ग्रहण कर लिया । पर बन्धुओ ! प्रदेशी राजा के चित्त प्रधान ने जब धर्म का महत्त्व समझ लिया तथा उस पर दृढ़ आस्था रखते हुए सच्चा श्रावक भी बन गया तो अब उसके हृदय में उथल-पुथल मच गई और वह विचार करने लगा कि अपने राजा प्रदेशी को किस प्रकार धर्म के मार्ग पर लाऊँ ? वस्तुतः सज्जन पुरुष औरों को भी सन्मार्ग पर लाने के प्रयत्न में लगे रहते हैं । क्योंकि - 'दट्ठू अण्णदोसं, सप्पुरिसो लज्जिओसयं होइ' । Jain Education International - सत्पुरुष दूसरों के दोष देखकर स्वयं में लज्जा का अनुभव करता है । गाथा में कितनी सुन्दर और यथार्थ बात कही गई है ? वास्तव में ही साधु-पुरुष औरों के दोषों को देखकर लज्जा का अनुभव तो करते ही हैं, करुणा से भी उनका हृदय भर जाता है । आप विचार करेंगे कि चित्त मन्त्री को भला राजा के लिए करुणा और कारण था ? दया तो निर्धन, रोगी, अपाहिज एवं प्रदेशी तो स्वयं राजा दया मन में लाने का क्या दुःखी मनुष्यों पर आती है । - भगवती आराधना ३७२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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