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इहलोक मोठा, परलोक कोणे दिठा
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जो भव्य प्राणी शास्त्रों के इन वचनों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करते हैं, वे कभी सच्चे देव, गुरु और धर्म पर अश्रद्धा नहीं रखते और हिंसा, चोरी, असत्य, कुशील, परिग्रह आदि दुर्गुणों को जीवन में उभरने नहीं देते । अपनी आत्मा और मन को विकारों से रहित बनाते हुए वे सांसारिक आसक्ति, लोलुपता तथा राग-द्वेषादि से परे रहते हैं एवं मिथ्याज्ञान या विपरीत श्रद्धान् का आश्रय लेकर जीवन को पतित नहीं होने देते।
अश्रद्धा का दुष्परिणाम भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं
एतां दृष्टिमवष्टभ्य, नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः । प्रभवन्त्युग्रकर्माणः, क्षयाय जगतोहिता ॥ काममाश्रित्य दुष्पूरं, दम्भमानमदान्विता।
मोहाद् गृहीत्वा सद्ग्राहान् प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥ कहा गया है-मिथ्याज्ञान के अवलम्बन से जिनका आत्म-स्वभाव नष्ट हो गया है और बुद्धि मन्द पड़ गई है वे सबका अपकार करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत् का नाश करने के लिए ही उत्पन्न होते हैं ।
. ऐसे वे मनुष्य दम्भ, मान और मद से युक्त होकर किसी भी प्रकार से पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेते हुए अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके आचारभ्रष्ट होकर प्रवृत्ति करते है ।
वस्तुतः परलोक को न मानने वाले व्यक्ति हिंसक बन जाते हैं और क्रूर से क्रूर कार्य करने में भी परहेज नहीं करते। राजा प्रदेशी भी ऐसा ही व्यक्ति था। वह न परलोक को मानता था और न आत्मा को; अतः उसके हृदय में दया या करुणा नाम की भावना ही नहीं थी । वह जीवों को हत्या करके देखा करता था कि इनके अन्दर आत्मा कहाँ है। दूसरे शब्दों में उसके हाथ सदा खून से रंगे रहते थे।
अधर्मी राजा की प्रजा भी कुछ तो उससे प्रभावित थी और कुछ जो धर्मअधर्म, आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक आदि को मानने वाले व्यक्ति थे, वे भी राजा के भय से प्रत्यक्ष में धर्माचरण नहीं करते थे । राजा सेर था तो प्रजा को भी आधा सेर तो होना ही था। सेर का सामना राज्य के व्यक्ति कर भी कैसे सकते थे ? उससे मुकाबला तो संत-महात्मा जो पूर्णतया निर्भय होते हैं, वे ही सवासेर होने के कारण कर सकते थे।
पर विचार करने योग्य बात यही है कि संत भी निरर्थक ही उनकी साधना
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