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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
नास्तिकों के कुतर्क
नास्तिक या श्रद्धाविहीन व्यक्ति अपने अशुभ कर्म-भार को और भी अधिक बढ़ा लेता है, क्योंकि वह परलोक की परवाह नहीं करता, अतः कहता है"परलोक जब है ही नहीं तो फिर प्रत्यक्ष में मिली हुई इस जिंदगी का आनन्द क्यों न उठाया जाय ? परलोक के काल्पनिक सुखों की आशा में प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त सुखों को त्याग कर तप, संयम और त्यागादि से शरीर को कष्ट क्यों देना चाहिए।" ऐसे व्यक्ति तो तप, त्याग, संयम, शील और साधना आदि का उपहास करते हुए यह भी निस्संकोच कहते हैं कि
अशक्तस्तु भवेत्साधुः, कुरूपा च पतिव्रता ।
व्याधितो देवभक्तश्च, निर्धनाः ब्रह्मचारिणः ॥ यानी-जो व्यक्ति कमाई करके उदरपूर्ति करने में असमर्थ है वह साधु बने । जिसे कोई पुरुष नहीं चाहता हो, ऐसी कुरूप स्त्री पतिव्रता रहे। इसी प्रकार रोगी व्यक्ति जो कि विषय-भोगों को भोगने में असमर्थ हो वह भगवान की भक्ति करता रहे और धन न होने के कारण जिसे स्त्री न मिल सकती हो वह भले ही ब्रह्मचारी बन जाय ।
खेद की बात है कि इस प्रकार की बातें करने वाले व्यक्तियों की संसार में कमी नहीं है और ऐसे विचार वाले अज्ञानी पुरुष सांसारिक सुखों को ही सुख मानते हुए विषय-वासना के कीचड़ में पड़े रहते हैं और विषयासक्ति के कारण विविध व्यक्तियों के शिकार बनकर जीवन की अन्तिम बेला में पश्चात्ताप करते हैं । उस समय वे सोचते हैं कि हमने जीवन में जो घोर पाप किये हैं, न जाने उनका क्या परिणाम होगा ? पर उस समय, जबकि मृत्यु चील के समान मस्तक पर मँडराने लगती है और मौत के चंगुल में फँसे उस प्राणी को कामभोगों की असारता समझ में आती है, तब फिर क्या हो सकता है ?
इसीलिए बुद्धिमान व्यक्ति को समय रहते ही चेत जाना चाहिए तथा शास्त्रकारों की बातों पर विश्वास करते हुए समझ लेना चाहिए कि
सुठुवि मग्गिज्जतो, कत्थवि केलीइ नत्थि जहसारो। इंदियविसएसु तथा, नत्थि सुहं सुठुवि गविलैं॥
-भक्त परिज्ञा, गा० १४४ अर्थात्- बहुत खोज करने पर भी जैसे कदली में कहीं भी सार नहीं मिलता, इसी प्रकार इन्द्रिय विषयों में भी तत्त्वज्ञों ने खूब खोज करके भी कहीं सुख नहीं देखा।
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