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________________ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग पीढ़ियों के पुरखों को भी नहीं देखते, तो क्या वे थे नहीं ? दूर क्यों जायँ ? अपनी पीठ ही हमें दिखाई नहीं देती, पर क्या यह है नहीं ? अवश्य है और यह सब बातें साबित करती हैं कि आँखों से दिखाई नहीं देता तो भी परलोक है और पाप या पुण्य के अनुसार आत्मा उत्तम या निम्न गति में जाती है । राजा प्रदेशी ८ इस विषय में 'राजप्रश्नीय सूत्र' में राजा प्रदेशी का विस्तृत प्रसंग दिया गया है । प्रदेशी राजा पूर्णतया नास्तिक था । वह न ईश्वर को मानता था, न स्वर्ग-नर्क को, न पुण्य-पाप को और न ही परलोक में विश्वास करता था । और तो क्या अपने माता-पिता के प्रति भी उसमें विनय या आदर का भाव नहीं था । उसका कथन था - 'जो राजा है, वही ईश्वर है तथा संसार का सुख ही स्वर्ग और दु:ख ही नरक है ।' अपने अज्ञान के कारण वह 'कूप मंडूक' के समान विचार रखता था । कूप मंडूक की कहानी आपने अनेक बार सुनी होगी । अतः उसे कहने की मैं आवश्यकता नहीं समझता । केवल यही कहना चाहता हूँ कि कुएँ में रहने वाला वह मेंढक उसे ही सम्पूर्ण संसार समझता था तथा कुए से बाहर सागर या अन्य और भी कुछ है, इस पर विश्वास नहीं करता था । क्योंकि उस कुए से बाहर उसकी दृष्टि नहीं जाती थी । पर उसके दृष्टिगोचर न होने से क्या यह कहा जा सकता था कि कुए से बाहर का इतना विशाल जगत् है ही नहीं, या लहराते हुए समुद्र भी कहीं नहीं हैं ? नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता । मेंढक के न देख पाने से सम्पूर्ण जगत् के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता था । राजा प्रदेशी भी यह नहीं जानता था कि इस पृथ्वी पर जो है, वह केवल सैम्पल या नमूना मात्र है । कोई व्यापारी ग्राहक के आने पर गेहूँ या चावल का थोड़ा सा नमूना मुट्ठी में लाकर बताता है, पर उससे यह साबित नहीं हो जाता कि माल बस उतना ही है । ग्राहक नमूने को देखकर यह कैसे जान सकता है कि व्यापारी के गोदाम में कितना माल है ? पर बिना देखे भी वह यह विश्वास रखता है कि व्यापारी के पास भंडार है । इसी प्रकार इस संसार में सुख और दुख का नमूना मात्र देख लेने से यह कैसे कहा जा सकता है कि यहाँ से अधिक सुख वाला स्वर्ग नहीं है और यहाँ के दुःखों से अधिक दुःख पहुँचाने वाला नरक भी नहीं हो सकता । कर्मों के अनुसार आत्मा को आगे जाकर भी सुख या दुख प्राप्त होते हैं । आप बम्बई से माल खरीदते हैं तो वहाँ जकात देनी पड़ती है और जब अपने गाँव में लाते हैं तो वहाँ की नगरपालिका को भी जकात या कर देना पड़ता है । क्या उस समय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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