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इहलोक मोठा, परलोक कोणे दिठा
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इस परिषह को जीत न सकने वाले साधु या श्रावक अश्रद्धा के कारण यह चिन्तन करते हैं कि “परलोक है ही नहीं और इतने दिन तक त्याग-तपादि का अनुष्ठान करके मैंने भूल की है, अथवा मैं ठगा गया हूँ।" इस प्रकार के विचार वे ही अस्थिर मन वाले करते हैं जिनकी श्रद्धा डावाँडोल है । उनका कथन यही होता है- “परलोक एक युक्ति शून्य कल्पना-मात्र है और उसको स्वीकार करने वाले भ्रम में पड़कर इस लोक के सुखों से भी वंचित हो जाते हैं।"
'इहलोक मीठा परलोक कोणे दिठा ?' यह एक गुजराती की कहावत है और विचलित श्रद्धा वाले नास्तिकों के द्वारा गढ़ी गई है । इसमें यही कहा गया है कि परलोक देखा ही किसने है ? किसी ने भी तो वहाँ से आकर उसके विषय में कभी कुछ नहीं बताया। इसलिए जो दृष्टिगोचर ही नहीं है, उस मिथ्या कल्पना के प्रपंच में पड़कर इस जीवन को भी निरर्थक खोना कहाँ की बुद्धिमानी है ? सर्वोत्तम तो यही है कि केवल कल्पना के परलोक में सुखों की प्राप्ति कर लेने की आशा का त्याग करके इस लोक में अधिक से अधिक सुख प्राप्त किया जाय । कहा भी है
लोकायता वदन्त्येवं, नास्ति देवो न निर्वृत्तिः । धर्माधर्मो न विद्यते, न फलं पुण्य-पापयोः ॥ पञ्चभूतात्मकं वस्तु, प्रत्यक्षं च प्रमाणकम् ।
नास्तिकानां मते नान्यदात्माऽमुत्र शुभाशुभम् ॥ अर्थात्-नास्तिकों की यह मान्यता है कि न कोई परमात्मा है, न मुक्ति है, न धर्म है, न अधर्म है और न ही पुण्य या पाप का फल कहीं भोगना पड़ता है। यह सम्पूर्ण जगत-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच भूतों से निर्मित है । इनके अतिरिक्त और कहीं कोई वस्तु नहीं है । इसके अलावा आगम या अनुमान कोई प्रमाण नहीं है, केवल प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है । निश्चय ही परलोक में जाने वाली कोई आत्मा नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष के अलावा सब अप्रामाणिक है। . इस बात को सुनकर या पढ़कर बड़ा आश्चर्य होता है कि नास्तिक व्यक्ति दृष्टिगोचर पदार्थ का ही अस्तित्व मानते हुए यह कैसे कहते हैं ?-चक्षुर्वैः सत्यम् यानी आँखों से दिखाई देने वाली वस्तु ही है, इसके अलावा कहीं और कुछ नहीं है।
अमेरिका को पहले किसी ने देखा नहीं था तो क्या वह देश था ही नहीं ? देखा तो तब गया जब उसकी खोज हुई। इसके अलावा लोग अपनी सात
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