________________
इहलोक मीठा, परलोक कोणे दिठा
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
कल विजयादशमी थी अतः हमने विचार किया था कि इसे कैसे मनाना चाहिए ? कल के दिन राम की रावण पर विजय हुई थी या यह भी कहा जा सकता है कि धर्म की अधर्म पर विजय हुई थी। धर्म की अधर्म पर विजय क्यों और कैसे हुई थी ? इस सम्बन्ध में मैंने पूज्यपाद, पंडितरत्न कविश्री त्रिलोकऋषि जी महाराज की एक कविता के आधार पर आपको बताया था। कविश्री ने अत्यन्त विस्तारपूर्वक एवं बड़े ही सुन्दर तथा मर्मस्पर्शी ढंग से आध्यात्मिक दृष्टिकोण सामने रखते हुए धर्मरूपी राम एवं अधर्मरूपी रावण की कथा या धर्म की अधर्म पर विजय की कहानी जिस प्रकार लिखी थी, वह मैंने आपके समक्ष रखने का प्रयत्न किया था।
आशा है उस आध्यात्मिक कथा को सुनकर आपके हृदय में भी दृढ़ विचार उत्पन्न हुआ होगा कि अगर हम भी अपनी आत्मा के स्वाभाविक धर्म को जागृत करें तो अधर्म को नष्ट करते हुए अपने दुर्लभ मानव-जीवन को सार्थक कर सकते हैं । मेरी भी यही कामना है कि प्रत्येक मुमुक्षु आध्यात्मिक दशहरा मनाए तथा राम नामक एक व्यक्ति और रावण नामक दूसरे व्यक्ति की ही यह कथा न मानकर धर्म की अधर्म पर विजय कैसे हुई इसका रहस्य समझे तथा अपने जीवन को धर्ममय बनाकर संवर-मार्ग पर चलते हुए समस्त मिथ्यात्व एवं आश्रदों पर पूर्ण विजय प्राप्त करे ।
.. अब हम अपने बहुत दिनों से चले आ रहे मूल विषय संवर पर आते हैं । संवर के सत्तावन भेदों में से तीसवें भेद या बाईसवें और अन्तिम परिषह की एक गाथा पर हमने विवेचन किया था । इकत्तीसवाँ हैं-'दर्शन परिषह' ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org