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आध्यात्मिक दशहरा मनाओ!
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इस विषय में शंकराचार्य जी ने एक श्लोक में कहा है
शूरान्महाशूरतमोऽस्ति को वा ? मनोज-बाणर्व्यथितो न यस्तु । प्राज्ञोऽतिधीरश्च समोऽस्ति को वा?
प्राप्तो न मोहं ललना-कटाक्षः॥ यह श्लोक 'प्रश्नोत्तरमाला' पुस्तक में से लिया गया है, अत: इसमें प्रश्न भी हैं और उत्तर भी वे इस प्रकार हैं-संसार में सबसे बड़ा शूरवीर कौन है ? जो काम-बाणों से पीड़ित नहीं होता। प्राज्ञ, धीर और समदर्शी कौन है ? जो स्त्रियों के कटाक्षों से मोहित नहीं होता।
राम भी ऐसे ही शूरवीर, प्राज्ञ, धीर और समदर्शी थे। यद्यपि किसी अपरिचिता स्त्री के इस प्रकार प्रणय-निवेदन से क्रोध आना स्वाभाविक था किन्तु उनमें धीरता का महान् गुण था । अतः उन्होंने बात को केवल हँसी में ही टाल देने के लिए सूर्पणखा से कहा-- __"देवी ! मेरा तो ब्याह हो चुका है और यह देखो, मेरी पत्नी सीता भी मेरे साथ ही है । पर मेरा भाई लक्ष्मण अभी अविवाहित और अपार सौन्दर्यशाली है । तुम उसके पास जाओ तो शायद तुम्हारी इच्छा पूरी हो जाय ।"
रामचन्द्रजी की बात सुनकर सूर्पणखा लक्ष्मण की ओर चल दी, जो कि कुटिया से कुछ ही दूर विचारमग्न बैठे थे। अपने भाई और सूर्पणखा के बीच होने वाले वार्तालाप को कुछ सुनकर और कुछ संकेत से उन्होंने समझ लिया था ।
सूर्पणखा ने लक्ष्मण से भी प्रणय-निवेदन किया, जैसा कि राम से किया था । आप जानते ही हैं कि लक्ष्मण क्रोधी थे, अपने भाई के समान उनमें धैर्य एवं सहनशीलता नहीं थी। इसलिए सूर्पणखा के लज्जाहीन निवेदन पर वे भड़क उठे और आग-बबूला होकर बोले--"तुझे शर्म आनी चाहिए अपनी विकारग्रस्त भावना के लिए प्रथम तो तू मेरे बड़े भाई के पास प्रेम की याचना करने गई थी, अतः मेरी भाभी के समान हो गई। दूसरे मैं तुझ जैसी चारित्रहीना को स्वप्न में भी नहीं अपना सकता । अन्य रामायणों में तो सम्भवतः यह भी कहा गया है कि लक्ष्मण ने अत्यन्त कुपित होकर सूर्पणखा की नाक ही काट डाली थी। खैर, कुछ भी हो, बात यही है कि पहले वह राम के द्वारा टाल दी गई और तत्पश्चात् लक्ष्मण की तीव्र भर्त्सना का शिकार बनाई जाकर वहाँ से भी निकाल दी गई। __सूर्पणखा की मनःस्थिति के विषय में क्या कहा जाय ? उसके विचार समुद्र में उठने वाली तरंगों के समान बदले। पहले पुत्र की मृत्यु के कारण
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