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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
भी न होने के कारण वे उठे और थके-थके कदमों से अपनी झोंपड़ी की ओर चले । वहाँ आकर उन्होंने अपने भाई राम से अपने भूल से हो जाने वाले पाप के विषय में बताया । पर इसके बाद ही कैसी आश्चर्यजनक घटना घटी, यह भी आपको बताता हूँ।
जब लक्ष्मण शंबुक की लाश के पास से हटकर अपने निवास की ओर चल दिये, उसके कुछ समय पश्चात् ही सूर्पणखा पुत्र के लिए प्रतिदिन के समान खाना लेकर आई । पर ज्योंही उसने वहाँ पर अपने पुत्र को मरा हुआ देखा, त्यों ही थाल एक ओर पटककर छाती पीटती हुई रोने लगी। पर रोने से क्या हो सकता था अतः उसने उठकर मारने वाले की खोज करना चाहा और लक्ष्मण के पैरों के चिह्नों के आधार पर उसी ओर चल दी। __ पद-चिह्न देखती हुई वह राम-लक्ष्मण की पर्णकूटी की ओर बढ़ी तथा वहाँ पहुंच गई । कुटिया में रामचन्द्रजी बैठे हुए थे। उन्हें देखकर वह अवाक् रह गई । इस पृथ्वी पर अपने जीवन में उसने किसी भी पुरुष में ऐसा सौन्दर्य और आकर्षण नहीं देखा था। कुमति का रूप तो वह थी ही, अतः पुत्र-शोक को भूल गई और राम के सहवास की इच्छा कर बैठी। राम से उसने प्रार्थना की“कृपा करके मुझे स्वीकार करो।"
- राम हैरान रह गये । प्रथम बार और अल्प क्षणों के लिए जिससे सम्पर्क हुआ वह स्त्री इस प्रकार अचानक ही भोग का निमंत्रण दे, यह आश्चर्यजनक ही था। पर वे जान गये कि
कामातुराणाम् न भयं न लज्जा। . अर्थात्-कामी व्यक्तियों को न किसी प्रकार का भय होता है और न दृष्टि में लज्जा ही रह जाती है।
विषय-विकारों का आकर्षण ऐसा ही प्रबल होता है । वह मनुष्य को पलमात्र में विवेकहीन एवं हिताहित के ज्ञान से शून्य बना देता है। ऐसे व्यक्ति भूल जाते हैं कि हमारी ऐसी चित्त-वृत्ति हमें न इस लोक में चैन लेने देगी और न परलोक में ही सुगति प्राप्त करने देगी। __ तो सूर्पणखा अपनी कुमति के कारण पुत्र की मृत्यु के दुःख को भी क्षण मात्र में भूलकर राम से सहवास की प्रार्थना करने लगी। किन्तु साक्षात् धर्म के अवतार राम क्या उसकी प्रार्थना को स्वीकार करके अपने शीलधर्म से विचलित हो सकते थे? नहीं, वे चरित्रवान् एवं इन्द्रिय-विजयी शूरवीर पुरुष थे ।
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