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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
इस प्रकार क्रोधी व्यक्ति औरों का अहित तो करता ही है किन्तु उससे पहले स्वयं अपना ही अहित कर लेता है, इसलिए क्रोध का सर्वथा त्याग करना चाहिए । यहाँ तक कि अपनी आत्मा का हित चाहने वाले व्यक्ति को तो किसी क्रोधी व्यक्ति के द्वारा क्रोध में गालियाँ देने, अपमान करने और अन्य किसी भी प्रकार के कटु वचन कहने पर भी अपने हृदय में क्रोध को उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए।
भगवान महावीर ने इसीलिए साधु को आदेश दिया है कि भले ही कोई व्यक्ति उसे गालियाँ दे, तिरस्कृत करे या अपमानित करे, किन्तु प्रत्युत्तर में उसे रंचमात्र भी क्रोध नहीं करना चाहिए।
क्रोधी व्यक्ति के सन्मुख क्रोध न करने से सबसे पहला लाभ तो यह है कि हमारी आत्मा मलीन नहीं होती, दूसरे क्रोध करने वाला भी आखिर कब तक अकेला अपने क्रोध का प्रदर्शन करेगा? यानी जब उसे प्रत्युत्तर नहीं मिलेगा तो वह भी जल्दी शांत हो जाएगा।
पूज्यपाद श्री तिलोक ऋषिजी म० ने एक दोहे में भी मनुष्य को यही शिक्षा दी है
"जाणरो तू अजाण होजे, तंत लोजे ताणी ।
आगलो अगन होवे तो आप होजे पाणी ॥ कहते हैं "अरे मानव, तू कभी भी क्रोध मत कर। अगर तेरे समक्ष कोई अन्य व्यक्ति आगबबूला होकर अपशब्द कहने लग जाय तो भी तू उसके क्रोध को अनुभव करता हुआ अनजान बना रह, केवल उसके शब्दों में अगर कुछ सार निहित हो तो मौन भाव से ग्रहण कर ले और इस प्रकार सामने वाले क्रोधी व्यक्ति की क्रोधाग्नि के लिए शीतल जल के समान बन । ऐसा करने पर ही तू क्रोधी के क्रोध को शांत कर सकेगा।"
___कहने का अभिप्राय यही है कि बुद्धिमान और विवेकी पुरुष को क्रोध पर विजय प्राप्त करते हुए कर्म-बन्धनों से बचना चाहिए। अगर क्रोध का उत्तर क्रोध से और दूसरे शब्दों में ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाय तो दोनों ही पक्ष समान रूप से कर्म-बन्धन करेंगे।
इसलिए भगवान ने साधु के लिए क्रोध करने का सर्वथा निषेध किया है और कहा है कि साधु को चाहे कोई गालियाँ दे, तिरस्कृत करे अथवा किसी प्रकार से उसका अपमान करे तो भी वह किसी पर क्रोध न करे क्योंकि क्रोध करने से वह स्वयं अज्ञानी साबित हो जाएगा । अर्थात् अज्ञानी के समान बन जाएगा।
जो सच्चे साध होते हैं वे आक्रोश परिषह को सहन करके अपने कर्मों की
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