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________________ आगलो अगन होवे, आप होजे पाणी द्वारपाल की यह बात सुनकर राजा के समीप खड़ा हुआ एक उच्च पदाधिकारी बोल उठा- "अरे, अपने महाराज तो गुस्से में आकर यमराज को भी पीट देते होंगे।" ___ "बस, यही तो मेरे दुःख का कारण है कि महाराज क्रोधित होकर जैसा अन्यायपूर्ण व्यवहार यहाँ करते थे, वैसा ही वहाँ यमराज के साथ भी करते होंगे तो वह हैरान होकर पुनः उन्हें यहाँ न धकेल दें और फिर राजा यहाँ आकर हमें सताने न लग जायँ ।" द्वारपाल के द्वारा कही हुई यह बात सुनकर एक बुद्धिमान व्यक्ति उसकी बातों का मर्म समझ गया और बोला- "तुम सच कहते हो द्वारपाल ! क्रोधी व्यक्ति जब तक जीवित रहता है, तब तक उसके कारण लोग भयभीत रहते हैं और उसके मर जाने पर भी लोग डरते रहते हैं तथा घृणापूर्वक उसे याद करते हैं । किन्तु तुम घबराओ मत, मरने वाला व्यक्ति पुनः उसी रूप में वापिस नहीं आता और हमारे नये महाराज ! अत्यन्त कोमल दिल के हैं। इन्हें क्रोध तो छ भी नहीं गया है अतः निश्चित होकर राज्य की सेवा करो।" नवीन राजा यह वार्तालाप सुन रहा था, उसने मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लिया कि मैं कभी भी बिना वजह क्रोधित होकर अपनी प्रजा पर अन्याय नहीं करूँगा और किसी भी निरपराध को सताऊँगा नहीं। द्वारपाल का यही मकसद था जो पूरा हो गया। बन्धुओ! इस लघुकथा से आप समझ गये होंगे कि क्रोध का परिणाम कितना बुरा होता है । ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में भी किसी का प्रिय नहीं बनता और मरने पर भी कभी सुगति को प्राप्त नहीं कर पाता । वस्तुतः क्रोध अनर्थ का मूल है और मन तथा आत्मा को मलीन बनाता हुआ ज्ञान रूपी नेत्रों को बन्द करने वाला है। किसी पाश्चात्य विद्वान ने कहा भी है "An angryman shuts his eyes and opens his mouth." क्रोधी व्यक्ति अपनी आँखें बन्द कर लेता है किन्तु मह खोल देता है। एक बात और यहाँ ध्यान में रखने की है कि अन्य तीनों कषाय यानी मान, माया एवं लोभ तो करने वाले पर और अन्य व्यक्तियों पर धीरे-धीरे प्रभाव डालते हैं किन्तु क्रोध ऐसा ज्वलन्त कषाय या तीव्र अग्नि है जो हृदय में प्रज्वलित होने पर औरों को तो जलाये या न भी जलाये, पर स्वयं को तो तुरन्त ही जला देती है। संस्कृत का एक श्लोक यही बात कहता है उत्पद्यमानः प्रथमं दहत्येव स्वमाश्रयम् । क्रोधः कृशानुवत्पश्चादन्यं दहति वा नवा ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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