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________________ आगलो अगन होवे, आपहोजे पाणी धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओं, एवं बहनो ! ___ आपको ध्यान होगा कि कुछ दिन पहले हम प्रवचनों में संवर तत्व के भेदों को क्रमशः ले रहे थे, किन्तु इस बीच पर्युषण महापर्व के आगमन से उन्हें बीच में ही छोड़ देना पड़ा । अब आज से पुनः संवर के भेदों पर विवेचन किया जायेगा। संवर के सत्तावन भेद हैं, जिनमें आने वाले बाईस परिषहों में से ग्यारह परिषहों को पूर्व में ले लिया गया है अत: आज बारहवाँ आक्रोश परिषह आपके समक्ष आएगा। इस विषय में श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है अक्कोसेज्ज परो भिक्खं, ण तेसि पडिसंजले । सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू ण संजले । -अध्ययन २, गा०, २४ इस गाथा में भगवान ने कहा है-साधु को भले ही कोई गाली दे, तिरस्कृत करे अथवा किसी भी प्रकार से अपमान करे तो भी साधु उस पर क्रोध न करे। क्रोध करने से वह स्वयं अज्ञानी के समान हो जाता है।' आत्मा का शत्रु क्रोध आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु होता है। वैसे तो कषाय-चतुष्क अर्थात् क्रोध, मान, मान, माया एवं लोभ ये चारों ही आत्मा के प्रबल बैरी हैं, जो आत्मा के समस्त गुणों का हनन करके उसे संसार-परिभ्रमण कराते रहते हैं। कषाय शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-'कष' यानी संसार और 'आय' यानी लाम । जिससे संसार परिभ्रमण का लाभ होता है उसे कषाय कहते हैं। कषाय चार प्रकार के हैं और उनमें सबसे प्रमुख है क्रोध । क्रोध के वेग में मनुष्य की बुद्धि कुण्ठित हो जाती है और वह हिताहित के ज्ञान से शून्य हो जाता है । क्रोधी व्यक्ति कभी यह नहीं सोच पाता कि उसके लिए करणीय क्या है और अकरणीय क्या। जब इस भयंकर शत्रु का अन्तःकरण में आगमन होता है तो वह अपने प्रिय से प्रिय आत्मीय सम्बन्धियों का भी लिहाज नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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