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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
कंथड़ी ओढ़कर सम्पूर्ण प्रकार के परिग्रह को छोड़ सकता है और फिर भी पूर्ण सन्तुष्ट और प्रसन्न रह सकता है, किन्तु वही व्यक्ति मन पर इन समस्त प्रकार के प्रलोभनों से विजय पाता हुआ भी काम विकार का त्याग नहीं कर सकता ।
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ऐसा होता है यह विकार । इसीलिए धीरे-धीरे अन्य समस्त विकारों से मन कहते हुए व्यक्तिको विषय-भोगों से भी मन को परे करना चाहिए | तभी वह मन को पूर्ण रूप से संयमी बनाकर शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ अपनी आत्मा को सद्गति की ओर ले जा सकेगा ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है :
देव दाणव गन्धव्वा, जक्खरक्खस किन्नरा । बंभयारि नमंसंति, दुक्करं जे करंति
स्वयं भगवान महावीर ने फरमाया है कि करने वाले महान पुरुष के चरणों में देव, दानव, देवता भी अपने मस्तक झुकाते हैं ।
भगवान ने यह भी स्पष्ट कहा है
॥ - अध्ययन १६ गा० १६ दुष्कर व्रत ब्रह्मचर्य को धारण गन्धर्व, यक्ष, राक्षस एवं किन्नर
तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं ।
अर्थात् ब्रह्मचर्य सभी प्रकार की तपस्याओं में उत्तम तपस्या है । भले ही व्यक्ति साधु न बन सके, पूजा-पाठ, जप-तप और अन्य धार्मिक क्रियाएँ न कर सके, किन्तु अगर वह सर्वदेशीय छोड़कर एकदेशीय ब्रह्मचर्य का भी पालन करता है तो अपने मानव जीवन का लाभ हासिल कर लेता है ।
स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य मानव की आत्मिक, मानसिक एवं नैतिक उन्नति के लिए अत्यन्त आवश्यक व्रत है । इसीलिए प्रत्येक धर्म के अनुयायी और प्रत्येक देश के निवासी मुक्त कण्ठ से इसकी प्रशंसा करते हैं ।
बुद्ध धर्म के 'धम्मपद' नामक ग्रन्थ में कहा गया हैअचरित्वा ब्रह्मचर्य, अलद्धा योव्वने धनम् । सेन्ति चापा तिखीणा व पुराणानि अनुत्थुनम् ॥
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- धम्मपद, ११ – ११
अर्थात् जिन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन नहीं किया और का उपार्जन नहीं किया, ऐसे दोनों प्रकार के व्यक्ति टूटे हुए रहते हैं और अपने पहले के समय की याद किया करते हैं ।
इसलिए जो अन्य प्राणी अपनी आत्मा के कल्याण का अभिलाषी है, उसे ब्रह्मचर्य का पालन अवश्य करना चाहिए क्योंकि ब्रह्मचर्य ही मंगलमय मार्ग या मुक्ति का दिव्य द्वार है ।
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जिन्होंने जवानी में धन धनुषों के समान पड़े
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