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ब्रह्मलोक का दिव्य द्वार : ब्रह्मचर्य संत तुकाराम जी उसे धिक्कारते हुए संबोधित करते हैं"फजितखोरा मना, किती तुज सांगो,
नन्दो कोणा लागो, मागे मागे।" संत का कहना है -- "हे मन ! तू ही मनुष्य की फजीहत कराने वाला है अतः अच्छा यही है कि तू किसी के पीछे मत लग और हमें अपने उच्च लक्ष्य की पूर्ति करने दे।"
वस्तुतः हम देखते हैं कि अगर गलत कार्य हो जाने पर किसी मनुष्य की फजीहत हो जाती है तो वह लज्जित होकर पुनः उस कार्य को नहीं करता, किन्तु मन तो इतना चपल होता है कि उसकी जन्म-जन्म में फजीहत होने पर भी वह पुनः पुनः उसी ओर अग्रसर होता है ।
आगे और भी कहा गया है :___ "निन्दा स्तुति कोणी करो दया माया,
न घरी चाड़ या सुख दुःखें।" मन को संयमित रखने के लिए कहते हैं-अगर कोई तुम्हारी स्तुति करता है तो उसे सुनकर गर्व मत करो और निन्दा करने पर घबराओ मत, इसी प्रकार कोई तुम पर दया करे और तुम्हारी सहायता करे तो सुख मत मानो और किसी के द्वारा छले जाने पर दुःख का अनुभव मत करो।
आप सोचेंगे इन बातों से ब्रह्मचर्य का क्या सम्बन्ध है ? पर ऐसी बात नहीं है । जो व्यक्ति मन के छोटे-छोटे विकारों पर काबू पाना सीख लेता है वही ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है। क्योंकि काम-विकार मनुष्य के लिए संसार के समस्त आकर्षणों में से उग्र आकर्षण है। यह प्रलोभन इतना प्रबल होता है कि भले ही मानव अन्य प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करले किन्तु काम के प्रलोभन में वह फँस ही जाता है। श्री भर्तृहरि ने इसीलिए कहा हैभिक्षाशनं तदपि नीरसमेकबारं,
शय्या च भूः परिजनो निज देह मात्रम् । वस्त्रं च जीणं शतखण्डमयी च कंथा,
हा हा ! तथापि विषयान्न परित्यजन्ति ॥ भावार्थ यही है कि व्यक्ति भीख मांगकर रूखा-सूखा और वह भी एक बार खाकर रह सकता है यानी वह अपनी रसनेन्द्रिय पर काबू पा लेता है । ऊबड़-खाबड़ जमीन पर सोकर शरीर-सुख को त्याग सकता है । संसार में अपना कहलाने वाला कोई भी न होने पर भी सन्तुष्ट रहता हुआ मोह-ममता को छोड़ सकता है । कीमती वस्त्राभूषणों के अभाव में फटा-पुराना वस्त्र पहनकर तथा सैकड़ों चिथड़ों से बनी हुई
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