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________________ ७८ आनन्द प्रवचन छठा भाग यह तो आपका घोर अन्याय है कि पापी वेश्या को तो स्वर्ग में भेजा जा रहा है और मुझ संन्यासी को नरक में।" भगवान ने जब संन्यासी की बात सुनी तो शांतिपूर्वक कहा – “संन्यासी ! मैं जानता हूँ कि तुम साधु थे और यह वेश्या । तुमने अपने शरीर को पवित्र रखा और वेश्या ने अपवित्र बनाया । इसलिये देखो ! तुम्हारे शरीर को तुम्हारे भक्त बड़े सम्मान से और फूलों के द्वारा सजाकर अंत्येष्टि क्रिया करने ले जा रहे हैं तथा वेश्या के शरीर पर लोगों ने थूका है और उसे नफरत के साथ कौओं और कुत्तों के खाने के लिये फेंक दिया है। किन्तु भावनाओं का और मन का जहाँ सवाल है, वहाँ वेश्या हर समय अपने कुकृत्यों के लिये पश्चात्ताप करती रही तथा सर्वान्तःकरण से हमसे प्रार्थना करती हुई अपने पापों के लिये क्षमा माँगती रही और तुम केवल उसके पापों को देखते हुए उनकी गणना करते रहे । इस प्रकार वेश्या का मन हमारी प्रार्थना में और तुम्हारा मन पापों में लगा रहा । भगवान के भक्त का कार्य औरों के दोष देखना नहीं है अपितु अपने दोषों को खोजना होता है । इस प्रकार मन के भावों में महान् अन्तर होने के कारण ही तुम नरक में भेजे जा रहे हो और वेश्या स्वर्ग की ओर जा रही है।" भगवान की बात सुनकर संन्यासी निरुत्तर रह गया। तो बंधुओ ! आप समझ गये होंगे कि भावों की उच्चता या पवित्रता किस प्रकार आत्मा को ऊँचा उठाती है और उसकी निकृष्टता कैसे उसे निम्न गति की ओर ले जाती है। जिस मनुष्य की भावनाओं में दृढ़ता होती है वह प्रत्येक स्थिति में अपने मन पर संयम रख सकता है और उसके लिये ब्रह्मचर्य का पालन करना भी कदापि असाध्य नहीं हो सकता। यह सही है कि मन चंचल होता है और बह सहज ही में ठिकाने नहीं रह सकता, किन्तु प्रयत्न करके उसे भी संयमित रखा जाता है । जो व्यक्ति मन पर काबू रखने का संकल्प कर लेते हैं वे प्रतिपल उसे समझाने का प्रयास करते हैं । कहते हैं "चल मना ! शोध कर झटभट, अवधी लटपट रेबा लटपट रे।" मन से कहा गया है- 'अरे मन ! तू ठिकाने रह, अपना स्थान छोड़कर इधर-उधर मत भटक, तभी हम कुछ कर सकेंगे।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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