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________________ ब्रह्मलोक का दिव्य द्वार : ब्रह्मचर्य ७७ कि भाव ही मनुष्य की आत्मा को संसार-सागर में बहा देते हैं और भाव ही उसे पार उतारते हैं। भावनाओं के अनुसार गति एक लोककथा के अनुसार कहा जाता है कि एक संन्यासी शहर से बाहर किसी मंदिर के समीप अपनी झोंपड़ी बनाकर उसमें रहते थे और उनकी झोंपड़ी से कुछ ही दूरी पर एक मकान था जिसमें एक वेश्या रहती थी। वेश्या के मकान पर दिन-रात में अनेकों व्यक्ति आया-जाया करते थे। यह देखकर संन्यासी को बड़ा दुःख होता था अतः एक दिन उन्होंने वेश्या को बुलाकर कहा- "अभागी स्त्री ! क्यों पापों का घड़ा भरे जा रही है ? क्या तू इन पापों से पीछा छ डाना नहीं चाहती ? । वेश्या संन्यासी की बात सुनकर अत्यन्त दुखी होती हुई बोली- “महाराज ! मैं तो हर समय भगवान से प्रार्थना करती रहती हूँ कि मुझे इस नारकीय जीवन से निकालो। किन्तु मैं करूँ क्या ? पेट भरने के लिये मेरे पास अन्य कोई उपाय जो नहीं है।" संन्यासी वेश्या की बात का कोई उत्तर नहीं दे सके और वेश्या पुनः अपने घर लौटकर उसी प्रकार का जीवन बिताने लगी । तब संन्यासी ने उसे समझाने का एक अन्य उपाय खोजा । वे अपनी कुटिया के बाहर बैठे रहते और उस वेश्या के यहाँ पर रोज जितने व्यक्ति आते उतने ही कंकर एक स्थान पर इकट्टे कर देते । धीरे-धीरे वहाँ पर कंकरों का एक बड़ा भारी ढेर बन गया। एक दिन पुनः संन्यासी जी ने उस वेश्या को बुलाया और उसे धिक्कारते हुए कहा-पापिनी ! यह देख अपने पापों का ढेर ! अब तो तुझे नरक में भी जगह नहीं मिलेगी।" कंकरों का वह ढेर देखकर वेश्या को इतना गहरा आघात लगा कि मारे दुःख के और पश्चात्ताप के वह फूट-फूटकर रो पड़ी। रोते-रोते उसने अन्तःकरण से भगवान को पुकारा और अपने पापों से छुटकारा दिलाने की प्रार्थना की। इसी बीच उसके हृदय की गति बन्द हो गई और वह इस लोक को छोड़कर चल दी । संयोग कुछ ऐसा बना कि वेश्या के मरने के बाद ही वह संन्यासी भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। दोनों साथ ही भगवान के समक्ष उपस्थित किये गये। भगवान ने उन दोनों के जीवन पर विचार किया और तत्पश्चात् वेश्या को स्वर्ग में पहुँचाने का तथा संन्यासी को नरक में भेज देने का आदेश अपने कर्मचारियों को दिया। ___ भगवान का यह निर्णय सुनते ही संन्यासी घोर आश्चर्य से अभिभूत सा रह गया तथा क्रोधित होकर बोल उठा- "भगवान के राज्य में भी ऐसा अंधेर ? प्रभो ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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