________________
७६
आनन्द प्रवचन | छठा भाग
कहने का अभिप्राय यही है कि ब्रह्मचर्य का पालन करना कोई मनःकल्पना नहीं है । महान् आत्माएँ पहले भी ऐसा करती थीं, और आज भी करती हैं। ब्रह्मचर्य को असाध्य मानना आत्मा की पवित्र एवं दृढ़ शक्ति का अपमान करना है । जो अज्ञानी व्यक्ति आत्मिक शक्तियों से अनभिज्ञ रहते हैं वे ही ब्रह्मचर्य की अशक्यता एवं प्रबल विकार विजय की शक्यता को स्वीकार करते हैं । आत्मिक रूप से ऐसे अत्यंत दुर्बल व्यक्ति ही ब्रह्मचर्य जैसे पवित्र एवं महिमामय व्रत को धारण करने में हिचकिचाते हैं। उन्हें चाहिये कि वे प्राचीन काल के महापुरुषों के पावन जीवन-चरित्र पर ध्यान दें, उन्हें पढ़ें और उन पर चिन्तन-मनन करते हुए अपने आत्मिक बल को बढ़ाएँ । ऐसा करने पर ब्रह्मचर्य का पालन करना कभी असाध्य नहीं रह सकेगा। जो व्यक्ति अपने जीवन को निर्दोष बनाने का सतत प्रयत्न करता है तथा दृढ़ संकल्प करके उसमें जुट जाता है, निस्संदेह उसका जीवन उच्च एवं पवित्र बनता है और इसके विपरीत जो अपने आचरण को पवित्र बनाने का प्रयत्न नहीं करता तथा निकृष्ट भावनाओं को हृदय में स्थान देता है वह पूर्णतया निकृष्ट व्यक्ति बन जाता है । इसलिए मनुष्य को सदा अपनी भावना-शुद्धि का ध्यान रखना चाहिये तथा उसके लिए निरंतर प्रयत्न करना चाहिये । अगर मानस में अपवित्र भावनाओं का जन्म हो भी जाय तो अविलम्ब अपनी दुर्बलता को धिक्कारते हुए उन्हें नष्ट करने का प्रयास करना चाहिये ।
भावनाओं की चमत्कारिक शक्ति के विषय में कवि सुन्दरदास जी ने बड़े सुन्दर ढंग से अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है :
याहि को तो भाव याको शंक उपजावत है, याहि को तो भाव याको निसंक करत है। याहि को तो भाव याको भूत प्रेत होय लागे, याहि को तो भाव याकी सुमति हरत है । याहि को तो भाव याको चंचल बनाये देत, याहि को तो भाव याही थिर को धरत है । याहि को तो भाव याको धार में बहाय देत,
याहि को सुन्दर भाव याहि ले तरत है ।। कवि ने सीधी-साधी सरल भाषा में भावों की महान शक्ति का दिग्दर्शन कराते हुए कहा है कि भावनाएँ ही व्यक्ति के हृदय में नाना शंकाओं को जन्म देती हैं तथा दृढ़ भावनाएँ उसे निःशंक बनाती हैं । भावनाएँ ही मनुष्य से भूत-प्रेत बनकर चिपटती हैं तथा उसकी मति को भ्रमित कर देती हैं । हम प्रायः कहते भी हैं कि अमुक व्यक्ति को भय का भूत सताता है । इसी प्रकार भावनाएँ मनुष्य के मन को चंचल भी बना देती हैं और दृढ़ता भी प्रदान करती हैं। अधिक क्या कहा जाय ? कवि का कथन है
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org