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चिन्तामणि रत्न, चिन्तन
है । कुछ आश्चर्य होने पर भी राजा ने कुछ कहा नहीं और पहले विद्वान को अधिक ज्ञानवान समझकर उसे पहले अन्दर बुलवाया।।
__ अनेक भाषाओं को जानने वाले और अनेकानेक शास्त्रों और धर्म ग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले विद्वान से राजा ने अनेक प्रश्न पूछे और अपनी जिज्ञासाओं को शान्त करने का प्रयत्न किया, किन्तु उसे उनका समाधान सही नहीं मिला और आत्म-संतोष प्राप्त नहीं हो सका। राजा ने कहा कुछ नहीं और विद्वान पंडित को सादर विदाई दी।
अब उसके सामने दूसरे पंडित का परिचय-पत्र रखा था। यद्यपि राजा का मन खिन्न था और उसे लग रहा था कि इतना विद्वान व्यक्ति भी जब मुझे संतुष्ट नहीं कर सका अर्थात् मुझे जीवन और जगत के बारे में नहीं समझा सका तो केवल गीता का पाठ करने वाला व्यक्ति मेरी समस्याओं का क्या समाधान करेगा?
फिर भी उसने आगत विद्वान को निराश करना या उसे अन्दर न बुलाकर उसका अपमान करना ठीक नहीं समझा इसलिए उसे भी बुलवा लिया।
विद्वान अन्दर आया । राजा ने देखा कि उसके शरीर पर मामूली वस्त्र थे पर किसी भी प्रकार के तिलक-छापे से रहित उसका चेहरा आत्म-विश्वास से चमक रहा था।
राजा ने उसे भी अपने समक्ष बैठाया और अपनी उलझनें तथा समस्याएं उसके सामने रखीं। विद्वान ने उन्हें ध्यान से सुना, कुछ मिनट विचार किया और फिर शान्ति पूर्वक स्पष्ट शब्दों में धीरे-धीरे राजा को समझाना प्रारम्भ किया।
वक्ता और श्रोता दोनों को ही समय का ध्यान नहीं रहा, स्थान का ध्यान नहीं रहा और अपने बीच के अन्तर का भी ध्यान नहीं रहा । बड़े सहज ढंग से केवल गीता-पाठ करने वाले पंडित ने जीवन और जगत, लोक और परलोक तथा कर्म और मुक्ति के विषय में सब कुछ समझाया और राजा ने उसे समझा । वह अत्यंत चकित और संतुष्ट होकर पूछ बैठा
"महात्मन् ! आपने न सारे धर्म-शास्त्र पढ़े हैं और न ही कई परीक्षाएँ पास करके प्रमाण पत्र प्राप्त किये हैं। केवल गीता का पाठ करके आपको इतना ज्ञान कैसे हासिल हो गया ? मुझे जीवन में पहली बार आज संतोष मिला है।"
विद्वान ने तनिक मुस्कराते हुए उत्तर दिया-"राजन् ! यह सही है कि मैं केवल गीता का पाठ करता हूँ, किन्तु थोड़ा पढ़कर भी उस पर चिंतन बहुत करता हूँ। चिंतन किये बिना कभी किसी विषय में गहराई तक नहीं पहुँचा जाता । मैं थोड़ा पढ़ता हूँ, उस पर खूब सोच-विचार करता हूँ और जब उसमें से सत्य को ढूँढ़ लेता
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