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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग है कि जब तक चिंतन नहीं किया जाएगा, तब तक विचार सुदृढ़ नहीं बनेंगे और बिखरे हुए तथा उलझे हुए विचार हमारे जीवन को सम्यक् मोड़ नहीं दे पाएंगे। __ यह तो हुआ एक लाभ, चिंतन के द्वारा दूसरा बड़ा भारी लाभ यह है कि आज के युग में भ्रमात्मक साहित्य भी मनुष्य के मानस को उलझन में डाल देता है और वह समझ नहीं पाता कि सचाई कहाँ पर है। किन्तु अगर वह ब्राह्म मुहूर्त में गम्भीर चिन्तन करता हुआ यथार्थ को समझने का प्रयत्न करे तो उसकी आत्मा में रहा हुआ ज्ञान उसकी सहायता करता है तथा सचाई के निकट पहुँचा कर सही मार्ग बताता है। आत्म-चिंतन बाहर से आने वाले कुविचारों के कचरे को प्रथम तो अन्दर आने नहीं देता और अगर वह आ ही जाये तो उसे शीघ्र निकाल फेंकता है । तीसरा लाभ चिंतन का यह है कि मनुष्य का जीवन सदाचारी एवं धर्ममय तभी बनता है जबकि उसके विचार अन्तर्मानस से दृढ़ बनकर आचरण में व्यवहृत होते हैं। चिन्तन गहरी नींव है जिसके आधार पर बना हुआ जीवन-रूपी मकान निर्दोष एवं सुदृढ़ बनता है। परिणाम यह होता है कि फिर वह लोभ-लालच आदि बाह्य विकारों अथवा बाधाओं से विचलित नहीं होता। धर्मप्रिय व्यक्ति को कोई कितना भी भुलावे में क्यों न डाले, वह डिगता नहीं। क्योंकि उसे अपने आप पर पूर्ण विश्वास होता है और इसलिए वह बाहरी विकारों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता। ऐसा व्यक्ति कम सुनकर और कम पढ़कर भी सुने हुए और पढ़े हुए को अपने चिन्तन को कसौटी पर उतारकर यथार्थ को ग्रहण कर लेता है तथा अपने जीवन को सही मार्ग पर ले जाता है। दूसरे शब्दों में, अधिक पढ़ना व सुनना जीवन को लाभ नहीं पहुँचाता, जीवन को लाभ पहुंचाता है चिंतन के द्वारा ज्ञान के सार को ग्रहण कर लेना। कम पढ़ना पर चिंतन अधिक करना एक राजा बड़ा ज्ञान-पिपासु था । वह जीवन और जगत के रहस्यों को समझने की तीव्र इच्छा रखने के कारण राज्य में, आए हुए प्रत्येक विद्वान का आदर करता था तथा उनके द्वारा अपनी जिज्ञासाओं की पूर्ति करने का प्रयत्न करता था। किन्तु फिर भी उसे संतुष्टि नहीं हो पाई थी और इसलिए उसका मन अशांत रहता था। ___ संयोगवश एक बार दो विद्वान उसके राज्य में आए और उन्होंने राजा के विषय में लोगों से जान कर उससे मिलने का विचार किया। दोनों ही विद्वान राज्य दरबार की ओर चल दिये तथा अपना परिचय लिखकर द्वारपाल के साथ राजा को भेजा। राजा ने देखा कि एक विद्वान ने बड़ीबड़ी डिगरियाँ हासिल की हैं, अनेक शास्त्र-पुराण कंठस्थ कर रखे हैं तथा कई भाषाओं पर अधिकार किया है। पर दूसरे विद्वान के परिचय-पत्र में केवल गीता-पाठ लिखा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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