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________________ चिन्तामणि रत्न, चिन्तन हमारे यहाँ मुमुक्षु व्यक्ति के लिए कहा जाता है श्रावक तू उठे प्रभात, चार घड़ी से पिछली रात । मन में सुमरे श्री नवकार, जिससे पावे भव से पार ॥ कहते हैं—हे श्रावक ! अगर तुझे इस भव-सागर से पार होना है तो चार घड़ी से पिछली रात्रि में अर्थात् डेढ़ घंटे रात बाकी रहे तब उठ कर नमोकार मन्त्र का जाप किया कर क्योंकि नमोकार मन्त्र समस्त पापों का नाश करके आत्मा को कर्म-मुक्त करने वाला है । नमोकार मन्त्र की महिमा बताते हुए कहा भी है : सुख कारण भवियण , सुमरो नित नवकार । जिन शासन आगम, चौदह पूर्व नो सार ॥ इण मन्त्र नी महिमा, कहेतां न लहे पार । सुरतरु जिमि चितित, वांछित फल दातार ॥ इन दो पद्यों में मनुष्यों को उद्बोधन किया गया है-"भव्य पुरुषो ! अगर तुम सच्चे सुख की बांछा करते हो तो नित्य नमोकार मन्त्र का स्मरण किया करो। चौदह पूर्व का सार जिसमें निहित है, उस महामहिम मन्त्र की महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता केवल यही कहा जा सकता है कि यह महामन्त्र कल्पवृक्ष के समान प्रत्येक इच्छित फल को प्रदान करने वाला है।" तो बन्धुओ ! वैद्यकशास्त्र में भी कहा गया है कि ब्राह्म मुहूर्त में उठकर जीवन में आने वाली समस्त विघ्न बाधाओं को हटाने के लिए मधुसूदन यानी भगवान श्री कृष्ण का स्मरण करो और हमारे धर्म ग्रन्थ भी यही कहते हैं कि डेढ़ घंटा रात रहते अर्थात् उसी बाह्म मुहूर्त में वीतराग प्रभु का स्मरण करो, नमोकार मन्त्र का जप करो तथा आत्म-चिंतन करो। पिछली रात्रि में जबकि वातावरण शांतिमय रहता है तथा हमारा मन एवं मस्तिष्क भी थकावट रहित होता है, उस समय चिंतन करना जीवन के लिए परम श्रेयस्कर बनता है। आप विचार करते होंगे कि आखिर चिंतन से ऐसा कौनसा लाभ हासिल हो जाता है ? इसका उत्तर बड़ी गहराई में जाता है; किन्तु हम यहाँ संक्षेप में यही कह सकते हैं कि हमारे अन्दर ज्ञान का असीम भंडार है और बाहर है अनेकानेक महापुरुषों के अनुभवों का निचोड़। तो हम जो बाह्य ज्ञान प्राप्त करते हैं अथवा महामानवों के अनुभवों को पढ़ते हैं उन्हें अपने चिंतन में लाकर अपने स्वयं के ज्ञान द्वारा सचाई की मुहर लगाकर उन्हें अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न कर सकते हैं । दूसरे शब्दों में, हम चिंतन के द्वारा पहले तो अपने विचारों को यथार्थता की कसौटी पर उतारते हैं और तभी उसे आचरण में लाने का संकल्प करते हैं। वही संकल्प धीरे-धीरे हमारे व्यवहारों में, कार्यों में और जीवन के अन्य क्षेत्रों में आता है । स्पष्ट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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