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देवत्व की प्राप्ति
पहले व्यक्ति की यह बात सुनते ही समीप बैठा हुआ दूसरा व्यक्ति बोल पड़ा-"भगवन् ! मैंने भी आपसे सन्तान प्राप्ति के लिए वरदान माँगा था । उसके अनुसार पुत्र तो हो गये किन्तु सब कपूत और स्वार्थी हैं। न कोई मेरी बात मानता है और न ही इस वृद्धावस्था में मुझे एक गिलास पानी भी भर कर पिलाता है । दिन-रात पड़ा-पड़ा कराहता रहता हूँ, पर सेवा करना तो दूर, कोई पास भी नहीं फटकता । इसीलिए आप जैसे सन्त-महात्मा कहते हैं
हरि बिन और न कोई अपना,
हरि बिन और न कोई रे। मात पिता सुत बन्धु कुटुम सब,
स्वारथ के ही होई रे॥ घर की नारि बहुत ही प्यारी,
तन में नाहीं दोई रे। जीवत कहती संग चलूंगी,
डरपन लागी सोई रे॥ वस्तुतः जीव का भला भगवान के अलावा और किसी से नहीं हो सकता। वही उसका अपना है । माता-पिता, पुत्र, एवं बन्धु-बान्धव तो सब स्वार्थ के सगे हैं।
और तो और, जो स्त्री पति के जीवित रहने पर तो कहा करती है—"मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रहूंगी, साथ ही चलूंगी, वह भी पति को मृत देखकर डरने लगती है और भूत-भूत कहकर दूर चली जाती है।
तो वचनसिद्ध सन्त के समक्ष उनसे वरदान प्राप्त करने वाला दूसरा व्यक्ति कहता है कि मेरे पुत्र हो गये पर सब स्वार्थी और कपूत हैं, मेरी फिक्र वे तनिक भी नहीं करते।
। अब तीसरे व्यक्ति का नम्बर आया जिसने स्त्री-प्राप्ति का वर सन्त से मांगा था। वह सन्त के सामने हाथ जोड़ता हुआ बोला-"महाराज ! आपकी कृपा से विवाह हो गया और स्त्री मिली । किन्तु अब तो मैं सोचता हूँ कि जिस प्रकार आधी जिन्दगी कुवारा रहकर बिता दी थी, उसी प्रकार बाकी भी निकल जाती तो बहुत अच्छा रहता । क्योंकि स्त्री ऐसी कर्कशा मिल गई है कि हवा से लड़ पड़ती है । न सुख से कभी खाने देती है और न दो-घड़ी आराम से घर में बैठने ही देती है । मेरे पास अधिक धन नहीं है अतः प्रतिदिन अपने लिए कपड़े और गहने की मांग करती है तथा मेरे ला न सकने पर मुझे छोड़कर चले जाने की धमकी देती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है
उरग तुरंग नारी नृपति, नर नीचो हथियार । तुलसी परखत रहब नित, इनहिं न पलटत बार ।।
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