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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग अर्थात् - सर्प, घोड़ा, स्त्री, राजा, नीच पुरुष एवं हथियार, इन्हें सदा परखते रहना चाहिए और इनकी तरफ से गाफिल नहीं रहना चाहिए; क्योंकि इन्हें पलटते देर नहीं लगती । " तो महाराज ! मेरा भी यही हाल है, यानी मेरी स्त्री भी मेरे धनाभाव के कारण पलट गई है और मैं बड़ा दुःखी हो गया हूँ ।" और स्त्री - प्राप्ति गया और उसी सन्त अब क्या कहते ? धन, पुत्र के इच्छुक व्यक्तियों को दुःखी देखकर उनका हृदय करुणा से भर समय उनकी दृष्टि उस चौथे व्यक्ति पर जा पड़ी जिसने भगवान के प्रति आस्था और भक्ति की माँग की थी । वह व्यक्ति शान्ति से बैठा था और उसके चेहरे पर आत्म-सन्तोष झलक रहा था । पर अपनी ओर सन्त की प्रश्नवाचक दृष्टि का अनुभव करने के कारण वह बोला "भगवन् ! मैं तो परम सुखी हूँ। जब तक सांसारिक बन्धनों में आसक्त था और धन ऐश्वर्य की फिक्र में पड़ा रहता था, तब रहता था । किन्तु जब से उनकी ओर से मन हट गया गया हूँ तब से मुझे कोई दुःख नहीं है । परम सन्तोष का हूँ - मेरे समान और कोई भी सुखी नहीं है ।" कहने का अभिप्राय यही है कि जो प्राणी संसार के क्षणिक और अवास्तविक सुखों की ओर से मुँह मोड़ लेता है, वह संसार में रहकर भी अपार सुख का अनुभव करता है और जो प्राणी संसार में सुख की खोज करता हुआ उसमें गृद्ध रहता है, वह दुःख का अनुभव करता है । श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा भी है तक बड़ा परेशान और दुखी और ईश्वर की भक्ति में रम अनुभव करता हूँ । सोचता जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतुवो ॥ अर्थात् संसार में जन्म का दुःख है, जरा, रोग और मरण का दुःख है । चारों ओर दुःख ही दुःख है । अतएव वहाँ प्राणी निरन्तर कष्ट ही पाते रहते हैं । Jain Education International - अध्ययन १६, गा० १६ इसीलिये सन्त-पुरुष भव-सागर में डूबते हुए प्राणियों को अपना बचाव करने के हेतु समझाते हैं तथा दान, शील, तप एवं भाव रूप धर्म की आराधना करने का उपदेश देते हैं । आप में से अधिकांश व्यक्ति सोचते होंगे कि पूजा-पाठादि क्रियाकाण्ड करने से और तपस्या करके शरीर को सुखाने से क्या लाभ है ? हमारे यहाँ पुष्पऋषि जी और धन्नाऋषि जी एकान्तर तप कर रहे हैं तथा दक्षिण प्रान्त से चाँदा (अहमदनगर) वाले धर्मप्रेमी श्री कनकमल जी गांधी के साथ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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