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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग जो व्यक्ति धर्मपरायण होता है वह मनुष्यों से सर्वश्रेष्ठ और मस्तक पर रखे जाने वाले मुकुट की मणि के समान बहुमूल्य माना जाता है । ऐसे धर्मात्मा व्यक्ति का सम्पत्ति आदि समस्त सांसारिक सुख-सुविधा की वस्तुएँ आश्रय ग्रहण करती हैं । अर्थात् धर्माचरण करने वाले व्यक्ति का लक्ष्मी भी वरण कर लेती है तथा उसके सहारे से इस प्रकार रहती है जैसे लताएं वृक्षों के सहारे रहा करती हैं । ५६ कहने का अभिप्राय यही है कि धर्म-रूपी कल्पवृक्ष के द्वारा सभी कुछ हासिल हो जाता है । हमारे धर्मग्रन्थ तो कहते हैं— प्राज्यं राज्यं सुभगदयिता नन्दना नन्दनानां, रम्यं रूपं सरसकविताचातुरी सुस्वरत्वम् । नीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धि:, किंतु ब्रूमः फलपरिणति धर्म कल्पद्र ुमस्य ॥ — शान्तसुधारस-धर्मभावना अर्थात् — विस्तृत राज्य, सुभग स्त्री, पुत्र- प्रपौत्र, सौन्दर्य, सरस कवित्वशक्ति, मधुरस्वर, आरोग्यता, गुणानुराग, सज्जनता एवं सद्बुद्धि आदि सभी कुछ धर्मरूपी कल्पवृक्ष के फल हैं । इस विषय में जिह्वा से कितना कहा जाय ? तो बन्धुओ, ऐसे धर्म को आत्मसात् करने वाले नर-पुंगव, पुरुष - शिरोमणि कहलाते हैं तथा जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त होकर सदा के लिए अमर हो जाते हैं । उन मुक्तात्माओं की कथाएँ ही आप सुन रहे हैं और हम सुना रहे हैं ताकि ऐसे आदर्श पुरुषों के गुणों को आप जानें, समझें और आचरण में उतारकर जीवन को निर्मल बनाएँ । एक का अंक हिन्दी के एक कवि ने कहा है रामनाम को अंक है, सब साधन हैं शून्य अंक गये कहु होत नहीं, अंक रहे दस गून ॥ पद्य में बड़े सरल और सुन्दर ढंग से कवि ने राम-नाम को एक का अंक बताया है । आप लोग हिसाब करते हैं तो एक पर बिंदियाँ लगाते हुए रकम को क्रमशः दस गुनी बढ़ाते जाते हैं, किन्तु केवल एक के अंक को हटा दिया जाय तो fafari चाहे जितनी हों, सब व्यर्थ हो जाती हैं । स्पष्ट है कि एक का अंक होने पर ही उस पर लगाई हुई बिंदियाँ सोने में सुगन्ध का काम करती हैं और उसके न होने पर निरर्थक चली जाती हैं । कवि ने राम के नाम को भी एक का अंक आदि अन्य समस्त साधनों को बिंदियों के समान Jain Education International बताया है तथा पूजा, भक्ति, सेवा कहा है। उनका कहना है कि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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