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________________ ५ धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! आपने अन्तगढ़ सूत्र में अनेक महान् सन्तों और सतियों के विषय में सुना है । उनका वर्णन शास्त्र में इसलिए नहीं किया गया है कि वे पूर्वावस्था में राजा या राजकुमार थे अथवा राजकुमारियाँ या रानियां थीं, वरन् इसलिए शास्त्र उनकी गुणगाथा गाता है कि उन्होंने आत्मा को संसार - मुक्त करने की उत्कृष्ट करनी की थी । उन्होंने धर्म को समझा, उसे जीवनसात् किया और घोर परिषहों तथा उपसर्गों के आने पर भी उसे छोड़ा नहीं । उन महान् आत्माओं ने प्राणत्याग करना स्वीकार किया किन्तु धर्म का त्याग करने की कल्पना भी नहीं की । इसीलिए उन्होंने देवत्व और उससे भी ऊपर उठकर मुक्ति को हासिल किया । विचार आता है कि धर्म में ऐसा अपना सर्वस्व और अन्त में प्राणों का भी बात को समझाया है— देवत्व की प्राप्ति संकल्प्य कल्पवृक्षस्य, चिन्त्यं असंकल्प्यम संचिन्त्यं फलं क्या है, जिसे रखने के लिए भव्य प्राणी विसर्जन कर देता है । एक श्लोक में इस Jain Education International - आत्मानुशासन, २२ अर्थात् कल्पवृक्ष से संकल्प किया हुआ और चिन्तामणि से चिन्तन किया हुआ पदार्थ प्राप्त होता है, किन्तु धर्म से असंकल्प्य एवं अचिन्त्य फल मिलता है । चिन्तामणेरपि । धर्मादवाप्यते || इसीलिये मुमुक्षु प्राणी ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र - रूपी धर्म का मर जाने पर भी त्याग नहीं करते । धर्म का आराधन करने पर ही व्यक्ति इहलौकिक एवं पारलौकिक सुख हासिल करता है तथा सदा के लिए संसार के दुखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है । जो व्यक्ति धर्म को सच्चे अर्थों में ग्रहण कर लेते हैं, उनके लिए मुक्तकंठ से कहा जाता है— . "पुंसां शिरोमणीयन्ते धर्मार्जनपराः नराः । आश्रयन्ते संपद्भिः लताभिरिव पादपाः ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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