________________
आनन्द प्रवचन | छठा भाग
धन की पहली गति है दान देना, दूसरी उसका भोग करना और अगर ये दोनों नहीं किये गये तो तीसरी गति उसका नाश होना है। इसलिए आवश्यकता से अधिक धन होने पर परोपकार एवं दानादि के द्वारा उसका सदुपयोग कर लेना चाहिए।
आप जानते ही हैं कि तालाबों में चारों ओर से पानी आया करता है। किन्तु उनमें भी एक-एक मोरी बनी हुई होती है यानी बाँध पर एक ऐसा स्थान रखा जाता है जहाँ से अगर तालाब में अधिक पानी आ जाय तो निकाला जा सके । अगर ऐसा नहीं किया जाय तो तालाब फूट जाता है और धन-जन की अपार हानि होती है । इसके अलावा तारीफ की बात तो यह है कि मोरी के द्वारा अधिक बढ़ जाने वाला पानी निकालते रहने पर न तो तालाब को ही नुकसान होता है और न ही लोगों को हानि पहुँचती है।
ठीक यही हाल धन का है । उसके अधिक हो जाने पर अगर दान रूपी मोरी के द्वारा व्यक्ति उसे निकालता रहे तो उसका तनिक भी नुकसान नहीं होता और अन्य व्यक्तियों को भारी लाभ हो जाता है । धन का त्याग करने से कभी घाटा नहीं होता उल्टे अनेक प्रकार से नफा ही होता है।
तो बन्धुओ, श्लोक में कहा गया है कि मधुर वचनों के साथ दान देना, ज्ञान का गर्व न होना, शौर्य होते हुए भी क्षमा-भाव का विद्यमान रहना और धन के साथ त्याग की भावना का जुड़ा रहना, ये चारों बातें मिलना बड़ा कठिन होता है। किन्तु जो भव्य-पुरुष इन्हें जीवन में उतार लेते हैं, वे अपना यह लोक तो उत्तम बनाते ही हैं, परलोक भी सुधार लेते हैं। अर्थात् इस जीवन में भी वे यशस्वी बनते हैं और अगले जन्म में भी अनेकानेक दुःखों से बच जाते हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को ये महान् गुण अपनाने चाहिए और आत्म-कल्याण की ओर अग्रसर होना चाहिए।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org