SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चार दुर्लभ गुण ५३ तो कहा जाता है कि कारूं का खजाना इतना विशाल था कि उसके धन का अन्दाजा ही नहीं लगाया जा सकता था। किन्तु एक बार उसके देश में भयानक अकाल पड़ा और लोग भूख से छटपटा कर मरने लगे । सैकड़ों व्यक्ति अपने राजा कारूं के पास भी अन्न की याचना करने गये, किन्तु उसने किसी को न तो पैसा ही दिया और न अन्न । पर कुछ समय पश्चात् मिश्र की नदी में ऐसी भयंकर बाढ़ आई कि उसका सम्पूर्ण धन यानी खजाना बह गया। ऐसा धन किस काम का ? शास्त्रकार कहते भी हैं "अभोगस्य हतं धनम् ।" अर्थात् धनवान होने पर भी जिसने अपने धन का उपयोग नहीं किया है, उसका धन निर्धन की स्थिति के समान विनष्ट रूप ही है। वस्तुतः धन को त्यागने की इच्छा न रखने वाला व्यक्ति उससे कुछ भी लाभ नहीं उठा सकता । वह जीवन भर उसे इकट्ठा करने का प्रयत्न करता हुआ नाना कष्ट उठाता है और अन्त में यहीं छोड़कर चल देता है। कवि बाजिंद का कथन है मन्दिर माल बिलास खजाना मेडियाँ । राज भोग सुख साज औ चंचल चेड़ियां ॥ रहता पास खवास हमेस हुजूर में। ऐसे लाख असंख्य गये मिल धूर में ॥ पद्य का अर्थ स्पष्ट और सरल है कि इस पृथ्वी पर असंख्य व्यक्ति ऐसे हुए हैं, जिनके पास महल-मकान, खजाने, राज्य, दास-दासियाँ और अनेक प्रकार के सुख के साधन मौजूद रहे हैं। किन्तु मृत्यु के आ जाने पर वे ही व्यक्ति धूल में मिलकर अपना नामोनिशान ही खो चुके हैं। इसलिए बन्धुओ ! हमारा बार-बार यही कहना है कि पूर्वकृत पुण्य से आपको जो धन मिला है उसका सदुपयोग करो। संतों को आपसे कुछ लेना नहीं है पर वे आपको लाभ का मार्ग बताते हैं और वह यही है कि यहाँ पर ही छट जाने वाले जड़ पदार्थों का त्याग करके आत्मा के साथ चलकर उसे कष्टों से बचाने वाले शुभ-कर्मों का संचय करो । दूसरे, धन का दान करने से उसमें कभी कमी नहीं आती। हमारे धर्मशास्त्र कहते हैं—“पात्रेऽनन्तगुणं भवेत् ।" यानी सुपात्र को दिया हुआ दान अनन्त गुना फलदायक होता है। सारांश यही है कि धन का सदुपयोग उसका त्याग करने में अर्थात् दान देने में है । महापुरुष धन की तीन गति बताते हैं "दानं भोगो नाश स्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy