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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
पाये जाते हैं। पैठण में भी एक व्यक्ति उनकी प्रशंसा से जल उठा। वह संत ज्ञानेश्वर को चिढ़ाने के लिए एक भैंसा पकड़ लाया और बोला-"इस भैंसे का नाम भी ज्ञानदेव है।"
ज्ञानेश्वर ने देखा, उनके चारों ओर अनेक ब्राह्मण एवं अन्य व्यक्ति तमाशा देखने के लिये खड़े हुए थे । ज्ञानदेव इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए और गम्भीरता पूर्वक बोले
___ "आप सत्य कह रहे हैं मैंसे में और हममें अन्तर ही क्या है ? केवल नाम और रूप कल्पित हैं, किन्तु आत्मतत्त्व तो एक ही है।"
दुष्ट व्यक्ति यह सुनकर और भी क्रोधित हुआ और कह उठा-"अच्छा यह बात है तो लो !" कहने के साथ ही उसने भैंसे को सड़ासड़ कई चाबुक मार दिये।
किन्तु उन समस्त तमाशबीनों की आँखें फटी की फटी रह गईं जब उन्होंने देखा कि चाबुक तो मैंसे की पीठ पर पड़े हैं, किन्तु उसके निशान लकीरों के रूप में ज्ञानदेव के शरीर पर पड़ गए हैं तथा उनसे खून छलछला रहा है ।
भैंसे को चाबूक मारने वाला व्यक्ति भी यह दृश्य देखकर चकरा गया तथा संत ज्ञानेश्वर की एकात्म-भावना का कायल होकर पश्चात्ताप करते हुए उनके चरणों पर गिरकर क्षमा माँगने लगा।
ज्ञानेश्वर जी ने उसे तुरन्त उठाकर अपने हृदय से लगाया और कहा- "भाई तुम भी तो ज्ञानदेव हो । क्षमा कौन किसे करेगा ?"
इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि जो महान् आत्माएँ होती हैं वे अपने समान ही औरों को समझती हैं तथा औरों के दुःख-दर्द से स्वयं दुखी होती हैं। साथ ही जब दूसरों के दुःख को वे अपना दुःख मानती हैं तो तन, मन और धन से उसका प्रतिकार करने के लिए प्रस्तुत रहती हैं।
तो हमारा विषय यही चल रहा है कि धन त्याग-युक्त होना चाहिए । अर्थात् जहाँ और जिसको भी उसकी आवश्यकता हो वहाँ उसे खर्च करने के लिए व्यक्ति को तत्पर रहना चाहिए । इतना ही नहीं, धनी मनुष्य का तो यह कर्तव्य है कि उसके पास अगर धन अधिक हो जाय तो वह अभावग्रस्त प्राणियों की खोज करे और उनका अभाव अविलम्ब दूर करे। अन्यथा धन का तो नाश होना ही है, और न भी हुआ तो उसे मृत्यु का आगमन होते ही छोड़ना है ।
मिश्र देश में कारूं नामक एक महान धनी राजा हुआ है, जिसके उदाहरण स्वरूप अगर किसी को अचानक बहुत धन प्राप्त होता है तो लोग कहते हैं- "अमुक व्यक्ति को कारूं का खजाना मिल गया है।"
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